Book Title: Kiratarjuniyam
Author(s): Vibhar Mahakavi, Virendra Varma
Publisher: Jamuna Pathak Varanasi

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Page 35
________________ ३२ किरातार्जुनीयम् उसी प्रकार गुप्तचर का वचन भी राजा के लिए प्रमाण होता है । जो गुप्तचर सच्ची बातों को छिपाकर राजा के सम्मुख मीठी-मीठी स्तुतिपरक मिध्या बातें करते हैं, वे राजा को धोखा देते हैं । इससे राजा के कार्य की हानि होती है और गुप्तचरों का नैतिक पतन होता है । वनेचर के कथन का अभिप्राय यह है कि हस्तिनापुर में दुर्योधन के विषय में जो उसने देखा है उसे वह ज्यों का त्यों युधिष्ठिर के समक्ष प्रस्तुत करेगा, चाहे वह युधिष्ठिर को अच्छा (प्रिय) लगे अथवा बुरा (अप्रिय ) लगे । (१) 'हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ' इस सारगर्भित सुक्ति में महाकवि ने सार्वभौमिक सत्य का निरूपण किया है । (३) इस सूक्ति द्वारा पूर्ववर्ती कथन का हेतुनिर्देशपूर्वक समर्थन होने से काव्यलिङ्ग अलंकार । (४) तृतीय चरण में 'मदुक्तम्' का अभाव होने से 'न्यूनपदता' दोष है । घण्टापथः-क्रियास्विति । हे नृप ! क्रियासु कृत्यवस्तुषु । युक्तैः नियुक्तैः । अनुजीविभिः भृत्यैः । चारादिभिरित्यर्थः । चरन्तीति चराः । पचाद्यच् । त एव चाराः । चरेः पचाद्यजन्तात्प्रज्ञादित्वादण्प्रत्ययः स्वार्थे । चक्षुष चारचक्षुषः 'स्वपरमण्डले कार्याकार्यावलोकने चाराश्चक्षूंषि क्षितिपतीनाम्' इति नीतिवाक्यामृते । प्रभवो निग्रहानुग्रहसमर्थाः स्वामिनो न वचनीयाः न प्रतारणीयाः ! सत्यमेव वक्तव्या इत्यर्थः । चारापचारे चक्षुरपचारवद्राज्ञां पदे पदे निपातः इति भावः । अतः अप्रतार्यत्वाद्धेतोः । असाधु अप्रियं साधु प्रियं वा । मदुक्तमिति शेषः । क्षन्तुं सोढुं अर्हसि । कुतः ? हितं पथ्यं मनोहारि प्रियं च वचो दुर्लभम् । अतो मद्वचोऽपि क्षन्तव्यमित्यर्थः ||४|| स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः । सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ॥ ५ ॥ अ० - यः अधिपं साधु न शास्ति सः किंसखा । ( एवमेव ) यः हितात् न संशृणुते सः किंप्रभुः । हि नृपेषु अमात्येषु च अनुकूलेषु (सत्सु ) सर्वसम्पदः सदा रतिं कुर्वते ।

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