Book Title: Kavyalankar Sutra Vrutti
Author(s): Vamanacharya, Vishweshwar Siddhant Shiromani, Nagendra
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 14
________________ (३) दण्डी ने सबसे प्रथम रीति और गुण का सम्बन्ध स्थापित किया है - बाण भट्ट ने जिसका संकेत मात्र किया था— दण्डी ने उसे नियम- बद्ध कर दिया । (४) भरत ने श्लेष, प्रसाद आदि को काव्य गुण माना है, परंतु दरडी ने उन्हें वैदर्भ मार्ग के गुण माना है। इसका अभिप्राय कदाचित् यह है कि वे वैदर्भ मार्ग को काव्य के लिए आदर्श मानते हैं - अथवा वैदर्भ काव्य और सत्काव्य को अभिश मानते हैं । " (५) गौड़ीय मार्ग में दण्डी के अनुसार उपर्युक्त गुणों का प्रायः विपयय रहता है । प्रायः का अभिप्राय यह है कि उनमें से (१) अर्थव्यक्तिअर्थात् अर्थ की स्फुट प्रतोति कराने की शक्ति, (२) श्रदार्य - श्रर्थात् प्रतिपाद्य अर्थ में उत्कर्ष का समावेश, और (३) समाधि — अर्थात् एक वस्तु के धर्मं का दूसरी वस्तु में सम्यकू रीति से प्रधान - लाक्षणिक और औपचारिक प्रयोग शक्ति- ये तीन गुण दोनों में समान हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इन तीन गुणों को दण्डी काव्य के लिए अनिवार्य मानते हैं क्योंकि अर्थ - व्यक्तिहीन काव्य हृदयंगम नहीं हो सकता, औदार्य - रहित होकर वह इतिवृत्त कथन रह जाता है और समाधि को तो दण्डी ने स्पष्ट शब्दों में 'काव्य-सर्वस्व' माना ही है । इन तीन गुणों के अतिरिक्त शेष सात गुणों का विपर्यय गौडीय मार्ग का आधार है । संस्कृत के विद्वानों में दरडी के 'एषां विपर्ययः - इनका विपर्यय' इन दो शब्दों को लेकर बड़ा विवाद चला है । कुछ विद्वान एषां (इनके) का अर्थ करते हैं दशगुणों का, और विपर्यय का अर्थ करते हैं वैपरीत्य । दूसरे विद्वान एषां का सम्बन्ध प्राणा:- मूलतत्व से स्थापित करते हैं और विपर्यय का करते हैं अन्यथात्व; इस प्रकार उनके अनुसार दण्डी का श्राशय : श्लेषादि वैदमं मार्ग के मूल तत्व हैं; गौडीय मार्ग के मूलतत्व इनसे अन्यथा है । विद्वानों का एक तीसरा वर्ग इन दोनों से भिन्न अर्थ करता है— एषां को तो गुणों का ही वाचक मानते हैं, परन्तु विपर्यय का अर्थ अन्यथात्व करते हैं । इसका अभिप्राय यह हुआ कि गौड़ीय मार्ग में श्लेषादि दश गुणों का अन्यथा रूप मिलता है । अब उपर्युक्त आख्यानों की परीक्षा कीजिए । पहले आख्यान के बिरुद्ध यह आक्षेप है कि जब उपर्युक्त दश गुण सौन्दर्य-बोधक हैं तो इनके विपरीत ( ३२ )

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