Book Title: Kahan Katha Mahan Katha
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Bahubali Prakashan

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Page 14
________________ कानजी स्वामी की आत्मार्थिता,गहन। अध्ययन तथा कठोर आचरण कीचच समस्त काठियावाड़ में होने लगी. कानजी स्वाध्याय|| उनसे वार्तालाप कर में मग्न रहतेथे भी गौरख अनुभव करते थे. स्थानकवासी, श्वेताम्बरसमाज तथा समस्त साधुवर्ग में उनकी प्रतिष्ठाहीगई. साथ साधुओं से चर्चा-वाती में भी केवली भगवान ने एक दिन आत्म-साधना कानजी स्वामी का दृष्टिकोण सत्यकी/पुरुषार्थी के अनन्त भव) के लिये मिला यह | शोधपरक होता था. देखे ही नहीं जो पुरुषार्थ (बहुमूल्य जीवन पात्र चाहे जितना भी कठोर आचरण करो करता है उसके अनन्त रंगने और कपडेयोने परन्तु यदि भगवान ने अपने ज्ञान में भव होते ही नहीं. में व्यर्थ जारहा है. हमारे अनन्त भवदेखे होंगेतो उसमें से एक भी भव कम नहीं होसकता. नि०० तुम्हे यह अच्छा नहीं लगता तोवस्त्र-पात्र (रहित गुरु द्वंटलो! कानजी स्वामी के गुरु श्नी हीराचन्द जी महाराज. कानजी,क्या विचार कर रहे हो? महाराज,इनवस्त्र-पात्र के कार्यों में समय गंवाना. मुझे अच्छा नहीं लगता है। S7

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