Book Title: Jinshasan Ke Chamakte Hire Author(s): Varjivandas Vadilal Shah, Mahendra H Jani Publisher: Varjivandas Vadilal Shah View full book textPage 8
________________ इस आलेखन में मेरा कुछ नहीं ! इस आलेखन में मैं एक बात स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूँ कि ये कथाएं मैंने सिर्फ गुजराती धर्मग्रंथों में से ली हैं। मैं लेखक नहीं - मैंने कथाओं का सिर्फ संपादन किया है। मैंने अपने मन से कुछ भी जोड़ा नहीं हैं। धर्म ग्रंथों का ही सिर्फ आधार रखा है। दुःख की बात है कि मैं संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पाली या अर्धमागधी भाषा जानता नहीं हूँ। अपने जैन धर्म के मुख्य ग्रंथ संस्कृत या प्राकृत भाषा में हैं। अर्थात् ऊपर से गुजराती में अनुदित ग्रंथ पढ़कर ये चारित्र लिखे हैं। मूल लेखों में जो मजा है वह मजा इन अनुवादित ग्रंथों में नहीं होगा, इससे थोडी रसक्षति तो है ही। सात आठ वर्ष का था तब श्री धर्मविजय महाराज (डहेलावाले)ने हमारे मुहल्ले (पाटण) में चौमासा बदला और व्याख्यान में दृष्टांत रूप में श्री धन्ना शालीभद्र की वार्ता कही। इस वार्ता ने दिल को झकझोर दिया। बारंबार मुनि महाराजों के व्याख्यान सुनते सुनते वार्ताओं में रस जगने लगा और व्याख्यान में सिर्फ बार्ताएं ही सुनने जाता ऐसा कहूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। समय बीतते दिमाग में बहुत वार्ताएं संग्रहीत हो गई। एक बार विलेपार्ले में पन्यास प्रवर श्री भद्रगुप्त विजयजी वर्तमान आचार्य श्री विजय भद्रगुप्त सूरिश्वरजी पधारे। उन्होंने व्याख्यान में श्री अंवति सुकुमाल की कथा सुनाई। कथा में रुचि तो थी परंतु उनकी व्याख्यान की शैली से मैं बहुत प्रभावित हुआ। उसी दिन से मैंने मन में निश्चय कर लिया कि ऐसी धार्मिक चरित्र कथाएं इकट्ठी करनी चाहिये और उन्हें पुस्तक रूप में छपवाकर समाज को अर्पित करनी चाहिये। एक दिन प्रात:काल दैनिक पत्र - 'मुंबई समाचार' मैं मेतारज मुनि की कथा पढ़ी और उसी दिन इस ग्रंथ की पहली कथा मेतारज मुनि की लिख दी। परंतु यह लेखन बहुत धीमी गति से चल रहा था। महिना या पंद्रह दिन में एकाध कथा लिखी जाती। लेकिन पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू आदि कुटुम्बीजन जो कुछ लिखा जाय उसे जल्दी छपवा दिया जाय, ऐसा आग्रह बार बार करते रहे। मन में निश्चय किया था कि १०८ कथाएं एक साथ पुस्तकाकार में छपे इसलिये इस कार्य में तीव्रता आई और सप्ताह में १-२ कथाएं लिखी जाने लगी। इस प्रकार प्रथम से अंतिम कथा लिखने में लगभग ढाई वर्ष लग गए। मैं मानता हूँ कि ऐसी ज्ञानकथाएं लिखने की मेरी अपनी कोई शक्ति नहीं -Page Navigation
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