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भूमिका ।
प्रिय वाचक वृन्द !
मानव भव की प्राप्ति बहुत दुष्कर, कई भवोंके उपार्जित पुण्यों द्वारा होती है। यही एक ऐसा भव है कि जिसमें मनुष्य अनन्त सुख मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है, यही कारण है कि देव भी मनुष्य भवकी प्राप्तिके लिये हर घड़ी लालायित रहते हैं; इसलिये यह तो कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं कि इस महान् दुष्कर जन्म को पाकर, अपनी इष्ट-सिद्धि की प्राप्तिके लिये उद्योग, मनुष्य का कितना आवश्यकीय कर्तव्य है। संसारका प्रत्येक धर्म (नास्तिकोंके अतिरिक्त) अपनी इष्ट-सिद्धि की प्राप्तिका सर्वोत्कृष्ट साधन प्रभु की सेवा, भक्ति ही मानता है। गुणी के गुणोंको प्राप्त करनेके लिये उसको सेवा, भक्ति अनिवार्य है, इसलिए पूर्णानन्द साध्यावस्था को प्राप्त करनेके लिये उस परम पुरुष परमात्मा की भक्ति नितान्त आवश्यकीय है। बस, इसी उद्देश्य को पूर्ति के लिये ही प्रस्तुत पुस्तक में जैन दर्शनानुसार (जिनेश्वर बिम्ब को ) भक्ति के मार्ग या विधि को समझाने का प्रयास किया गया है। यद्यपि इस पुस्तक में प्रतिपाद्य विषय से हो भक्ति का उच्चादर्श पूर्ण नहीं हो जाता है, तथापि उच्चादर्श (भक्ति ) की दशा को पहुंचने के इच्छुकोंके लिये तो यह पुस्तक बड़ो हो काम की होगी। भक्ति का उन्धादर्श है गुणी के गुणोंमें अभिन्न भाव से एकतार हो जाना, अर्थात् गुणी परमात्मा और अपने को भिन्न न समझ अपनी आत्मा को तद्स्वरूप कर लेना ही भक्ति का सार है। इस उच्चादर्श का लक्ष्य रख जो इस पुस्तकानुसार भक्ति मार्गमें चलेंगे वे अवश्यमेव परमानन्द को प्राप्त करेंगे, यह निःशंसय है।
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