Book Title: Jinabhashita 2009 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ तो हम १ तारीख को ही दे देते हैं। बुला कर भी दे। की कोरी बातें करने से प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन की देते हैं। जाकर के भी दे देते हैं। अभी क्यों दे रहे | यह भूमिका है ही नहीं। आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने कहा हो? नहीं, आप तो ले जाओ। इसी प्रकार सम्यक्त्व की | कि जिस तत्त्वचर्चा में वाद-विवाद, विसंवाद होते हैं, वर्धनी हो रही है। तो एक और सही कर्म का बंध, | वह तत्त्वचर्चा ही नहीं है। यह क्या है, लड़ रहे हैं, उससे क्या हानि होनेवाली है। जो कहते हैं कि देव- | भिड़ रहे हैं, कोर्ट तक पहुँच रहे हैं। कोर्ट को न निश्चय शास्त्र-गुरु की पूजा करने से साम्परायिक आस्रव, बंध | सम्यग्दर्शन मालूम है, न अठारह दोषों से रहित भगवान् होता है, तो इनका कथन करना बिल्कुल गलत है। आप | का स्वरूप मालूम है। न यह सब मालूम है। पहले अध्ययन करिये, लिखा तो यही है, लेकिन लकीर के | पंचायत होती थी और पंचों के माध्यम से ये सब कार्य फकीर न बनो। अर्थ भी कैसा, क्या निकाला जा रहा | होते थे। आज एकदम सारे-के-सारे पंच बन चुके हैं। है, यह भी देखो। इसीलिए लिखा गया होगा। अर्थ की | प्रजातंत्र है तो कौन पंच, कौन सरपंच, सब के सब ओर दृष्टि रखो। इस तरह स्वाध्याय करते वर्षों हो गये। पंच हैं। किसी को किसी से डर है ही नहीं। हम आपकी कितने लोगों का अहित हो गया। स्वयं का अहित हो| किताब को लेकर देख लेंगे। दूसरी किताब दूसरी तरफ गया तो हो गया। साथ में कितने व्यक्तियों का अहित | से प्रकाशित होकर आ जाएगी। लीजिये, पढ़िये महाराज, हो गया। कितने निष्ठावान् व्यक्तियों की निष्ठा को क्षति ऐसा-ऐसा लिखा है। हमें सिखा रहे हैं, हमें पढ़ा रहे पहुँच गई होगी। कई व्यक्तियों ने व्रत छोड़े हैं इस प्रकार हैं। हम हमेशा पढ़ते रहते हैं। इसमें तो ज्ञानवर्धन होता के प्रवचन से। ध्यान रखो, गुरु महाराज के मुख से | है। आप कहाँ पर कैसे लिख रहे हैं, देखने से तो सब हमने कई बार सुना है, बोलने में तो इस प्रकार की | मालूम पड़ जाता है। इससे ज्ञानवर्धन हो जाता है। कोश बोली आ जाती है, लेकिन सोचते हैं, तो भैया! यह देख रहे हैं। यह कोश कहाँ का है। अरे! कोश तो ठीक नहीं है। वे कहते हैं कि जो बंध का कारण | कोश है। हमें इससे क्या मतलब है। इन सबके माध्यम है वह संवर और निर्जरा का कारण हो ही नहीं सकता। से ज्ञान हो जाता है कि यह बात बिल्कुल कटु सत्य यह पेटेन्ट वाक्य है। कारण-कार्य की व्यवस्था समझते | है। सत्य हमेशा कड़वा ही होता है। आप लोग मीठे नहीं हैं। न्याय के ग्रन्थ कभी देखे नहीं। कुछ भी पढ़ा के आदी हो गये हैं, इसलिए ऐसा होता है। सुनना तो नहीं और बोलना प्रारंभ कर दिया। आपको अच्छा लगे| पड़ेगा। अभी दूसरा सत्र है। अभी बहुत सत्र बाकी हैं। या न लगे। अब हमने किसी का नाम लिये बिना इस | आज प्रवचन के बदले में चर्चा में ही प्रवचन होता जा ढंग से प्रचार-प्रसार करना प्रारंभ कर दिया है। जिस रहा है। होने दो, और कोई शंका तो नहीं? न ही कोई व्यक्ति के यहाँ कारण-कार्य की व्यवस्था में गड़बड़ी अदेव, न ही कोई सुदेव, न ही कोई कुदेव, न ही है, उसे समझ करके आप पढ़ो और सुनो। जो व्यक्ति कोई कल्पवासी और न ही कोई अहमिन्द्र, न कोई कारण-कार्य की व्यवस्था की जानकारी नहीं लेता, वह | पद्मावती, न क्षेत्रपाल, यह कोई विषय ही नहीं है। व्यक्ति न स्वहित कर रहा है और न परहित कर रहा रत्नकरण्डश्रावकाचार उठा कर देख लो। पैंतीस श्रावकाचार है। न युग के लिए करता है। यह आर्ष मार्ग की प्रभावना हैं, उनमें भी यही कहा गया है। 'समयसार' के शिविर है ही नहीं। एक पंथ वह है, जो यह भी नहीं समझता | बहुत हो गये, अब समन्तभद्र स्वामी की कृति कि देव-शास्त्र-गुरु कौन हैं और उन देव-शास्त्र-गुरु को | रत्नकरण्डश्रावकाचार को भी एक बार उठा करके देखो। पूजना चाहिए या नहीं। भैंरों जी को पूजना चाहिए या | आचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज जी ने रत्नकरण्डश्रावकाचार नहीं, किसको पूजना चाहिए, किसको नहीं, इसका ज्ञान | को 'रत्नत्रय की स्तुति' यह नाम दिया है। वास्तव में नहीं। एक व्यक्ति यह भी नहीं जानता कि अठारह दोष | रत्नत्रय की स्तुति है। सामान्य से प्रथम अध्याय में क्या होते हैं? सम्यग्दर्शन का सर्वाङ्गीण चित्रण किया गया है। वे एक व्यक्ति तत्त्व को लेकर चल पड़ा। क्या है | समनतभद्र महाराज सामने खड़े होकर प्रश्न करनेवाले यह सब? साहित्य पढ़ते हैं, सुनते हैं, परिवर्तन देखते | और 'आप्तमीमांसा' लिखनेवाले दिग्गज विद्वान् थे, जिनके हैं तो ऐसा लगता है कि ठीक लिखा है आगम में रत्नत्रय ऊपर बड़ी-बड़ी टीका, उपटीका आदि लिखी गयी हैं। बहुत दुर्लभ है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है। अष्टसहस्री जैसा ग्रन्थ है, जो आठ हजार श्लोकप्रमाण न काल के ऊपर निर्भर होता है और न ही इस प्रकार | है। उसके लिए यह मंगलाचरण के रूप में लिखा गया 6 सितम्बर 2009 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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