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गतांक से आगे
जैन कर्म सिद्धान्त
स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया मतलब यह है कि कार्मण वर्गणा यह एक पुद्गल , मोटा चादर गरीब के वास्ते हर्ष का कारण होता है, स्कन्ध की जाति विशेष है, जो सारे लोक में व्याप्त | वही शालदशाला ओढ़नेवाले राजपुत्र के लिये विषाद का है। जहाँ भी जीव के राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ कारण बन जाता है। इस प्रकार समान सामग्री हो, तो मोहादिभाव पैदा हुए कि वह कर्मरूप बनकर आत्मा भी सबको समान सुख-दुःख नहीं होते हैं। इस तरतमता के प्रदेशों के साथ मिल जाती है। इसे ही जैनधर्म में | को देखने से यही निश्चय होता है कि सख-द:ख के कर्मबन्ध होना बताया है। वे ही बँधे हुए कर्म अपने | होने में पुष्पकंटकादि से भिन्न कोई अन्य ही अदृष्ट उदयकाल में इस जीव को अच्छा-बुरा फल देते हैं और | कारण हैं और वे अदृष्ट कारण कर्म ही हो सकते हैं। इसे संसार में रुलाते हैं। जैसे अग्नि से तप्त लोहे का प्रश्न : कोई आदमी बुरा काम करता है उसका गोला पानी में डालने से पानी को अपनी तरफ खींचता फल राजा देता है। इस प्रत्यक्ष फलदान को छोड़ कर है, उसी तरह कषायभावों से ग्रसित आत्मा कर्मवर्गणाओं उसका फल परोक्ष कर्मों के द्वारा दिया जाना क्यों माना को अपनी ओर खींचकर उनसे आप चिपट जाता है।
जावे? जैसे पी हुई मदिरा कुछ देर बाद अपना असर पैदा | उत्तर : राजा अगर दण्ड देगा तो प्रगट पापों का
बावला बना देती है, उसी तरह बाँधे | देगा। गप्त पापों का जिन्हें राजा जानता ही नहीं. उनका हुए कर्म कालांतर में, जब अपना फल देते हैं, तो उससे फल कौन देगा? और मानसिक पाप तो सदा ही अप्रगट जीव सुखी, दुखी, रोगी, निरोगी, सबल, निर्बल, धनी, हैं, उनका फल भी जीव को कैसे मिलेगा? तथा दया, निर्धन आदि अनेक अवस्थाओं को प्राप्त हो जाते हैं। | दान, ध्यान आदि उत्तम कार्यों का फल भी जीव को इस प्रकार जैनधर्म में जीवों की विचित्रता के कारण | कौन देगा? एक मनुष्य अनेक हत्या करे, तो राजा उसे उनके अपने बाँधे हुए कर्म माने गये हैं। जैसे बीज के प्राणदण्ड देता है, किन्तु इससे तो हत्या करनेवाले को बिना धान्य नहीं होते, वैसे ही कर्मों के बिना जीवों की एक ही हत्या का दण्ड मिलता है बाकी हत्याओं का नाना प्रकार की अवस्थायें नहीं हो सकती हैं। कर्मों के | दण्ड कैसे मिलेगा? अतः मानना पडेगा कि बाकी का अस्तित्व की सिद्धि के लिये यह एक हेतु है। अन्यथा दण्ड नरकगति के रूप में कर्मों से ही मिलता है। कर्म इतने सूक्ष्म हैं कि हम छद्मस्थ उनका कदापि प्रत्यक्ष कों को सिद्धि के लिये दूसरा हेतु यह है कि नहीं कर सकते हैं। जिस प्रकार पुद्गल के परमाणु हमारे जैसे चेतन की की हुई कृषि आदि क्रियाओं का फल इन्द्रियगोचर नहीं हैं, परन्तु उनसे बने स्कन्ध को देखकर | धान्यादि की प्राप्ति है। जो भी चेतन की की हुई क्रिया हमें परमाणु का अस्तित्व मानना पड़ता है। इसी तरह होगी उसका कोई-न-कोई फल जरूर होगा। उसी तरह कर्मों के शुभाशुभ फल को प्रत्यक्ष देखकर परोक्षभूत चेतन द्वारा की हुई हिंसा आदि पाप क्रियाओं या दया, कर्मों का अस्तित्व भी मानना होगा।
दान आदि क्रियाओं का फल भी जरूर होना चाहिये प्रश्न : पुष्पमाला, चन्दन, स्त्री आदि प्रत्यक्ष सुख | वह फल शुभाशुभ कर्मों का जीव के बन्ध मानने पर के कारण हैं और सर्प, कंटक, विषादि प्रत्यक्ष दु:ख | ही बन सकेगा। के कारण हैं। इन प्रत्यक्ष हेतुओं को छोड़कर सुख- प्रश्न : जैसे कृषि क्रिया का प्रत्यक्ष फल धान्य द:ख के परोक्ष कारण कर्मों को क्यों माना जावे? प्राप्ति है, उसी तरह हिंसा असत्य आदि का प्रत्यक्ष फल
उत्तर : पुष्पमाला आदि एकांततः सभी जीवों को | शत्रुता, अविश्वास आदि है और दया, दान आदि का सुख के कारण नहीं होते हैं। शोकाकुलित जीवों को | प्रत्यक्ष फल मन की प्रसन्नता यशप्राप्ति आदि है। इस ये ही चीजें दुःख का कारण भी देखी जाती हैं। इसी प्रकार क्रियाओं का फल हम भी मानते हैं। इन दृष्टफलों तरह विषादि भी सभी को दु:ख का कारण नहीं होते | को छोडकर अदृष्टफल कर्मबन्ध क्यों माना जावे? हैं। किन्हीं-किन्हीं रोगियों को विष का सेवन आरोग्यप्रद उत्तर : जीवकृत सभी क्रियाओं के दृष्टफल और होकर सुख का कारण भी हो जाता है। खादी का बना । अदृष्टफल दोनों फल होते हैं। कृषि आदि सावध क्रियाओं
8 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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