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सप्तम अंश
तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन
पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता
षष्ठ अध्याय
आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥ ८ ॥
अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन का भेद करने पर ४३२ भेद हो जाते हैं, तथा हिंसा आदि पाँच श्लोकवार्तिक में इस सूत्र में आये 'च' शब्द की पापों के साथ गुणा करने पर ४३२४५ - २१६० भेद हैं। सूत्र व्याख्या नहीं की है। में आये 'च' शब्द से जीवाधिकरण के २१६० भेदों का
सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान - संग्रह हो जाता है। प्रत्याख्यानसंज्वलनकषायभेदकृतान्तर्भेदसमुच्चार्थः ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दः क्रोधादिविशेषोपसंग्रहार्थः । २० । 'च' शब्दः क्रियते क्रोधादीनां विशेषाणाम् उपसंग्रहार्थम् । तेन अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनषोडशकषाय-भेदात् द्वात्रिंशदुत्तरचतुःशतगणनाविकल्पा वेदितव्याः ।
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द क्रोधादि के विशेष का संग्रह करने के लिए है । २० । अर्थात् 'च' शब्द से कषायों के भेद और उपभेदों का संग्रह हो जाता है। अतः अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषाय के सोलह भेदों से गुणा करने पर जीवाधिकरण आस्रव के चार सौ बत्तीस भेद भी जानना चाहिये ।
स्वभावार्मदवं च ॥ १८ ॥
सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक एवं सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति ग्रंथ में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः परस्परसमुच्चये । तेनायमर्थःन केवलम् अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्यायुष आस्रवो भवति किं च स्वभावमार्दवत्वं च मानुषस्यायुष आस्रवो भवति । यद्येवं तर्हि अल्पारम्भपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवं च मानुषस्यायुषः इत्येवमेकं सूत्रं किमिति न कृतम् ? सत्यमेवैतत्, किन्तु पृथग्योगविधानम् उत्तरायुरात्रवसम्बन्धार्थम्। तेनायमर्थः-स्वभावमार्दवं, सरागसंयमादिकं च देवायुरास्त्रवो भवतीति वेदितव्यम् ।
अर्थ- 'च' शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है, इससे
अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द आया है उससे अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन सम्बन्धी क्रोधादि कषायों के सोलह भेदों के निमित्त से होनेवाले अन्तर्भेदों का समुच्चय होता है । वे भेद चार सौ बत्तीस हैं, ये सब भेद हिंसा की अपेक्षा समझना, इसी प्रकार असत्य, चोरी आदि की अपेक्षा चार सौ बत्तीस, चार सौ बत्तीस भेद जीवाधिकरण के जानने चाहिये ।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दोऽनन्तानुबन्ध्य- यह अर्थ है कि केवल अल्पारम्भ, अल्प- परिग्रह का भाव प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनषोडशकषायभेदकृताऽन्तर्भेद- मनुष्य-आयु के आस्रव का कारण नहीं है, किन्तु स्वभावमार्दव समुच्चयार्थः । तेन द्वात्रिंशदुत्तरचतुःशतगणनास्तद्विकल्पा का भाव भी मनुष्य आयु के आस्रव का कारण है। शंकाहिंसापेक्षया वेदितव्याः । तद्वदनृताद्यपेक्षयापि योज्याः । यदि ऐसा है, तो एक ही सूत्र क्यों नहीं किया? समाधानआपकी बात सत्य है फिर भी पृथक्प्रयोग का विधान दूसरी अर्थात् देवायु के आस्रव का सम्बन्ध करने के लिए है । इससे यह अर्थ है- स्वभाव की मृदुता और सरागसंयम आदि देव-आयु के आस्रव होते हैं यह जानना चाहिए । श्लोकवार्तिक
तत्त्वार्थवृत्ति - चकार किमर्थम् ? अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनकषायभेदकृतान्तर्भेद
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स्वभावमार्दवं चेति हेत्वंतरसमुच्चयः । मानुषस्यायुषस्तद्धि मिश्रध्यानोपपादिकम् ॥
समुच्चयार्थः ।
अर्थ- सूत्र में च शब्द किसलिए है? अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन कषायों के अवान्तर भेदों का समुच्चय करने के लिए दिया है।
अर्थ- 'स्वभावमार्दवं च' इस सूत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ समुच्चय है । इस कारण मनुष्य- आयुसम्बन्धी आयु के आस्रावक हो रहे दूसरे हेतु का भी समुच्चय हो जाता है । अथवा स्वभावमृदुतासे मनुष्यआयु और देव-आयु का आस्रव होना समझा दिया जाता है। साथ ही विनीतस्वभाव, प्रकृतिभद्रता, संतोष, अनसूया, अल्पभावार्थ- जीवाधिकरण के १०८ भेद होते हैं, इसमें । संक्लेश, गुरुदेवतापूजा आदि कारणों का भी संग्रह हो जाता
16 सितम्बर 2009 जिनभाषित
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