Book Title: Jinabhashita 2009 09
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ ग्रन्थ समीक्षा 'मैं तुम्हारा हूँ' : मुनि श्री क्षमासागर जी समीक्षक : प्रो० महेश दुबे 'मैं तुम्हारा हूँ' मुनि श्री क्षमासागर जी की काव्य अमृतमय हो जाना यात्रा का पाँचवाँ सोपान है। इसमें उनकी ५९ कवितायें यही है। संकलित हैं। क्षमासागर जी विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं एवं ये कवितायें जीवन के ऐसे ही अमृतमय पाथेय का एक चिंतक और मनीषी संत के रूप में लब्ध-प्रतिष्ठ हैं।। विश्वास दिलाती हैं, जहाँउनकी कविताएँ स्फटिक की तरह पारदर्शी और सम्प्रेषणीय परमात्मा से प्रेम रूप से अभिव्यक्ति-समृद्ध हैं। इन कविताओं में एक संत और कवि दोनों एकाकार हो गये हैं। सब कुछ सहने का अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि फिलिप लारकिन ने कहा साहस देगा। था कि : प्रत्येक कविता अनिवार्यतः अपना ही एक नया ये कवितायें मानवीय गरिमा से अभिषिक्त और सृजित ब्रह्माण्ड होती है। क्षमासागर जी के काव्य संग्रह प्रज्ञा-समृद्ध हैं। यहाँ संत क्षमासागर का कवि-मन, कुंवर 'मैं तुम्हारा हूँ' को पढ़ते हुए इन कविताओं के असीम | नारायण के शब्दों मेंब्रह्माण्डीय विस्तार का अनुभव होता है- जहाँ इस दृश्य अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त जगत् और अनुभव की सीमाएँ छोटी पड़ जाती हैं। ये अपनी उदासी में अधिक उदार है। कविताएँ हमें जीवन और जगत् के पार ले जाती हैं। कुछ | वह एकांत के ऐश्वर्य से परिचित है और भीड़ की राग लिये, अनुराग लिये, पंक्ति-पंक्ति में विराग लिये. | रिक्तता भी उसे मालूम है। तभी तो वह लिखता हैवीतराग की इन कविताओं में आध्यात्मिक व्याकलता है. जब आदमी चेतना के प्रवाह का लालित्य है, परमात्मा का उल्लास बाहर भीड़ से है और पृथ्वी तथा काल के विस्तार को वृत्तित करता हुआ घिर जाता है आदि और अंत है। तब मैं जानता हूँ अद्भुत हैं ये कवितायें! इनका सत्य मौन में मुखर वह अपने भीतर कितना अकेला होता है और शब्दों में घुल जाता है। इन्हें पढ़ते हुए हमें रूप से अरूप की, पृथ्वी से आकाश की और पदार्थ से रह जाता है। इन कविताओं में कवि का आग्रह कहे से कहीं निराकार की यात्रा का अनुभव होता है। पारस्परिक सद्भाव ज्यादा उस पर ध्यान देने का है. जो वह नहीं कह रहा से गुंथी हुई ये कविताएँ अपनी नि:स्पृह वैयक्तिकता के है या नहीं लिख रहा है। जो शब्दों के बीच रह गया है। लिये भी याद रखी जायेंगी। क्योंकि शब्दों के बीच में ही तो खोजना है- सत्य को. डब्ल्यू.एच. डेवीज ने अपनी एक कविता में कहा था कि चिन्ताओं से भरा हुआ वह जीवन ही क्या, जहाँ ब्रह्म को। इसीलिये वह कहता हैखड़े होकर किसी चीज पर निगाह ठहराने का समय ही तुम उस अनलिखे को पढ़ लेना नहीं है। इन कविताओं में हम खड़े होते हैं, अपनी दृष्टि उस अनकहे को स्थिर करते हैं, सूक्ष्मता से अवलोकन करते हैं और फिर सुन लेना। शुरू होती है एक सार्थक विचार-यात्रा, जिसमें यह प्रतीति प्रतिस्पर्धा के इस युग में आज हर व्यक्ति आगे होने बनी रहती है कि का अहंकार लिये हुए है, बेतहाशा दौड़ रहा है। कवि हमें अब मृत्यु के झोंके नहीं आएँगे एक विचार-सूत्र देता हैजीवन का तुम्हारा आगे होना किसी के - सितम्बर 2009 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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