Book Title: Jinabhashita 2009 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ तृतीय अंश कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का तृतीय अंश प्रस्तुत है। जब व्यक्ति रागद्वेष से युक्त रहेगा तो वह सत्य | कहा है। 'प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः' (आत्मानुशासन ५) महाराज! का उद्घाटन नहीं कर सकता। आज तो विद्वानों की आपके शब्द मीठे तो नहीं लग रहे हैं। बात ऐसी है आमदनी और आजीविका श्रावकों पर निर्भर है, तो | कि ज्वर के कारण जिसका मख कडवा हो जाता है. वह व्यक्ति प्रवचन में स्पष्ट क्या बोलेगा? उपकरणों | तो उसको मिश्री भी खाने को दे दो, तो वह कड़वी के माध्यम से यदि कोई व्यक्ति व्यवसाय करेगा, तो | लगती है। तो हम क्या करें। हम आपको मिश्री दे रहे वह षट्कर्म के अन्तर्गत नहीं आयेगा। हम सब कुछ | हैं और आप उसको निबोली कह दो, तो हम क्या करें। देख रहे हैं। आगम की बात कहते हैं, तो चुभ जाती | हम इसलिए दे रहे हैं कि एक बार इसको खा लो, है। लेकिन हम क्या करें। जहाँ पर काँटा लगा हुआ तो स्वस्थ हो जाओ, लेकिन ज्वरग्रस्त व्यक्ति को मिश्री है, वहाँ पर थोड़ा सा हाथ रखते ही वह चुभ जाता | भी कडवी लगती है। है। हम नहीं चुभोते हैं। जो भीतर चुभा हुआ है वह | जिसको सर्प काट जाता है उसको निबोली भी चभता है। हम इसलिए छू रहे हैं कि कहाँ पर दर्द | मीठी लगती है। हम क्या करें, उसको जीवित रखने हो रहा है, हम देख लेते हैं। महाराज, दर्द पूरे पैर में | के लिए कितना जहर फैला है! कितना विषाक्त है! यह हो रहा है। आप छू लेते हैं। नहीं, नहीं, पूरे पैर में | जानने के लिए निबोली ही खिलाई जाती है, ताकि वह काँटा नहीं लगा है भैया! बिल्कुल नहीं, नस में वह | जहर को जहर मान सके। इसलिए आचार्यों ने कहा लगा हुआ है और नस ढकी हुई है। इसलिए पैर सूज | 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ' (स्वयंभूस्तोत्र १२/३) पंडित गया है। तो क्या खा गया है वह? रोष खा गया है | जी ऐसा लिखा गया है। सम्यक्त्ववर्धनी क्रिया के साथ वह। क्या कोई रोष खाता है? सावध लेश होता है और पुण्य अधिक होता है, साथ पैर रोष खा गया है, इसलिए इतना मोटा हो गया | ही संवर-निर्जरा भी होती है, अपने दिमाग से सोचो। है। कहीं भी पिन दर्द नहीं देता है। उसी प्रकार इन | सावद्य में भी कमी आ जाये। दुकान खोलना शब्दों के माध्यम से किसी को पिन कर देते हैं और | अनिवार्य है। दुकान खोलने के लिए, तो किराया देना दर्द हो रहा है तो सहन कर लो। निकल जायेगा काँटा, | पड़ेगा। जब आमदनी चाहोगे तो कुछ किराया पेशगी देना नहीं तो पैर कटाना पड़ेगा। हम भगवान से प्रार्थना करते | ही पड़ेगा। देना तो है लेकिन ज्यादा न देना पड़े। दुकान हैं- आपके पैर सलामत रहें और काँटा निकल जाये।| देख लो, हाँ, तुम्हें तो बॉर्डर पर भी चाहिए। मेन बाजार थोडा तो सहन कर लो। बहत दिन से काँटे को पाला | में भी चाहिए. दो खण्ड (मंजिल), चार खण्ड की भी है। काँटे से काँटा निकलता है तो क्या करें। पाँव को | चाहिए। सब कछ चाहिए तो कछ ज्यादा देना ही पडेगा। ज्यादा इधर-उधर कर दोगे, तो ये काँटा भीतर कहीं | तो पगड़ी रख देते हैं। गल न जाये। थोड़ा सा आप लोग सहन कर लो। 'सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ' अब बता दो, यह सम्यक्त्ववर्धनी की ओर किसी की दृष्टि ही नहीं गयी। | दुकान अच्छी है न, बहुत बढ़िया, आपकी कृपा है कि यह कहाँ का प्रकाशन है? कहाँ से चालू होता है? यह आपका पुरुषार्थ है। महाराज! आपने आशीर्वाद दिया है कहाँ का शिविर है? कौन आ रहे हैं? कैसा प्रबंध है? | न! दुकान कहाँ चल रही है, बीच बाजार में, सड़क यह आ जाता है। अरे! इन सब बातों के साथ क्या | पर नहीं। बीच बाजार का अर्थ है बिल्कुल मेन रोड है? फिर भी आप लोग आते हैं तो आशीर्वाद तो देना पर। सब लोगों की दृष्टि वहीं पर जाती है। अब दुकान ही पड़ता है। लेकिन हम सोच-विचार कर देते हैं। यह | अच्छी चल रही है। इसलिए किराया चौगुणा भी देना भी ध्यान रखो। स्पष्ट वक्ता हूँ, क्योंकि आगम में यही | पडे, तो कोई बात नहीं। ३१ तारीख को देना होता है -सितम्बर 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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