Book Title: Jinabhashita 2009 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 7
________________ देते हुए कहा कि 'गुणेष्वनुरागः भक्तिः' अर्थात् अपने | जैसे काष्ठ के एक सिरे में अग्नि लगने से धीरे आराध्य के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। 'भक्ति' का | धीरे सारा काष्ठ. भस्म हो जाता है, वैसे जिनभक्ति से अर्थ 'गुणों में तन्मयता' भी है। अथवा सिद्धि को प्राप्त | पूर्वसंचित कर्मों का नाश होता है। जिनभक्ति से आत्मीय हुए शुद्धात्माओं की भक्ति द्वारा आत्मोत्कर्ष का नाम ही | गुणों के अवरोधक कर्मों का अनुभागखण्डन, स्थिति'भक्ति योग' अथवा 'भक्ति मार्ग' है और उनके गुणों खण्डन और बन्धोपशमन हो जाता है, जिससे आत्मीक में अनुराग को, तदनुकूल वर्तन को अथवा उनके प्रति | गुणों का विकास होता है, इसलिए जिनभक्ति आत्मगुणों गुणानुरागपवूक आदर-सत्कार रूप प्रवृत्ति को भक्ति कहते | के विकास में कारण हैहैं, जो कि शुद्धात्मवृत्ति की उत्पत्ति एवं रक्षा का साधन स्ततिः पण्यगणोत्कीर्तिः स्तोता भव्य-प्रसन्नधीः। है। अपने उपास्य के स्वरूप में एकाकार होना भक्ति निष्ठितार्थो भवात्स्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखम्॥ की साधना है। जब तक अपने स्वभाव को अपने आराध्य - इस प्रकार जिनसेनाचार्य ने स्तुति का फल मोक्षके साथ तन्मय नहीं बनायेंगे, तब तक हम वास्तविक | सुख कहा है। इसलिए भक्ति मोक्ष का कारण है। जैसे भक्तिरस के मूल को नहीं पा सकते हैं। उमास्वामी आचार्य | बाँस के आश्रय से नट ऊँचा चढ़ने में सफल हो जाता ने तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण में कहा है, 'वन्दे तद्गुण- | है, उसी प्रकार भक्तिरूपी सोपान के द्वारा यह आत्मा लब्धये' अर्थात् मैं आपके जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए | उन्नत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि वास्तविक वन्दना, नमस्कार, भक्ति करता हूँ। यदि वर्षों पूजाप्रक्षाल | दृष्टि से देखा जाय, तो वीतरागता के प्रति उत्पन्न हुई कर, घण्टानाद कर, दीप जलाकर जयजयकार करने के श्रद्धा-भक्ति एवं गुणानुराग ही आगे चलकर भक्त के गुणों उपरान्त भी तद्गुणलब्धि नहीं हुई तो समझो कि 'भक्ति' | का विकास करता है और उसका पुरुषार्थ उसे भगवान् का शाब्दिक अर्थ भी पल्ले नहीं पड़ा, उसके भावात्मक बना देता है। सौधर्म इन्द्र भगवान् के पंच-कल्याणकों अधिग्रहण का तो प्रश्न ही दूर है। के अवसर पर गुणानुरागपूर्वक विभोर होकर की गई भक्ति 'भावविशद्धियक्तो ह्यनरागो भक्तिः '। अर्थात् भावों के प्रसाद से ही अपने पूर्व भवांतरों में बद्ध कर्म-बधंनों की विशुद्धि के साथ अनुराग रखना भक्ति है (स. सि. | को शिथिल व जीर्ण-शीर्ण करता है, तथा इस भक्ति ६/२४) की प्रक्रिया से ही वह एक-भवावतारी बन जाता है। 'अर्हदादिगुणानुरागो भक्तिः।' अर्हदादि के गुणों | आचार्यप्रवर वादीभसिंह सूरि ने अपने 'क्षत्रचूड़ामणि' से प्रेम करना भक्ति है (भ० आ० / वि०/४७ / १५९ / | ग्रंथ में भक्ति का माहात्म्य प्रकट करते हुए भक्ति को २०) मुक्ति का साधन निरूपित किया है। 'जिनभक्तिः सती स्तुति, प्रार्थना, वंदना, उपासना, पूजा, श्रद्धा, सेवा | मुक्त्यै क्षुदं किं वा न साधयेत्।' अर्थात् सही रूप में और आराधना ये सब भक्ति के ही नामन्तर हैं। जिनागम | की गई जिन-भक्ति जब कि मुक्ति-प्राप्ति का कारण हुआ में स्तुति, पूजा, वंदना, उपासना आदि के रूप में इस | करती है, तब वह अन्य छोटे कार्यों को क्या सिद्ध न भक्तिक्रिया को सम्यक्त्व-वर्द्धिनी क्रिया बतलाया है। | करेगी? अर्थात अवश्य करेगी। स्वामी मानताचार्य के सद्भक्ति के अहंकार के त्यागपूर्वक गुणानुराग बढ़ने | अनुसारमें प्रशस्त अध्यवसाय की उपलब्धि होती है और उन त्वत्संस्तवेन भव संतति सन्निबद्धं, प्रशस्तपरिणामों की विशुद्धि से अनादिकाल से संचित पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्। कर्म एक क्षण में नष्ट हो जाते हैं। जयधवला टीका आक्रांतलोकमलिनीलमशेषमाशु, में जिनभक्ति अथवा जिनदेव को किये गये नमस्कार सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमंधकारम्।। को कर्मक्षय का हेतु कहा है- 'अरहंतणमोक्कारो संपहि- अर्थात् हे भगवन्! आपके गुणों का संस्तवन करने यबंधादो असंखेज्जगुणकम्मक्खयकारओ त्ति तत्थ वि | से प्राणियों के भव-भवान्तरों में संचित पाप क्षणभर में मुणीणं पवुत्तिप्पसंगादो' (ज.ध. पु. १ । पृ.९)। अर्थात् | उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे रात्रि का भौंरों के समान अरहंत भगवान् को किया गया नमस्कार तत्कालबंध की | काला लोकव्यापी अंधकार प्रात:काल सूर्य की किरणों अपेक्षा असंख्यातगणी कर्मनिर्जरा का कारण है। | से तुरन्त ही विलय को प्राप्त हो जाता है। आगे चलकर -मार्च 2009 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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