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रागविरेचक बनाकर आचार्यश्री ने भव्य जीवों के हिताय इसमें संजोकर प्रस्तुत किया है। इससे श्रोताओं को सरलता से भाव समझ में आने के कारण अवश्य ही सुखानुभूति होती है I
समयसारकलश का विषय निश्चयनय प्रधान होकर भी अनेकान्तमय है। इसमें जीव के कर्त्ता, अकर्ता, बद्ध, अबद्ध आदि भावों का वर्णन अविरोधी नयदृष्टियों से किया गया है, निजामृतपान में उन विषयों का विवेचन बड़ी सुन्दर पंक्तियों में सर्वत्र किया गया है। आनन्द लेंएकस्य मूढो न तथा परस्य चितिद्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्वत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥
कलश ७१ भिन्न-भिन्न नय क्रमशः कहते आत्मा मोही निर्मोही । इस विध दृढ़तम करते रहते अपने-अपने मत को ही ॥ पक्षपात से रहित बना है मुनिमन निश्चल केतन है । स्वानुभवी का शुद्ध ज्ञान-धन केवल चेतन-चेतन है। जिनामृतपान ७१ आचार्यश्री ने नयाभासों पर प्रहार कर सर्वत्र स्याद्वादात्मक अनेकान्त की पुष्टि की है। सम्पूर्ण ग्रन्थ पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि आचार्य श्री भी प्रकरणों पर निर्बाध गति से गमन करते हैं, कहीं भी स्खलन नहीं है। 'निजामृतपान' सन्तों को आत्मानुभवरूपी आनन्द में डुबोने में समर्थ है। कर्मनिर्जरा का हेतु एवं मोक्षमार्ग में अग्रसर होने हेतु सफल कारण सिद्ध हो सकता है। आचार्यश्री ने स्वयं भी कहा है
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मुनि बन मन से जो सुधी करे निजामृतपान । मोक्ष ओर अविरल बड़े चढ़े मोक्ष सोपान ॥ (समापन ५) निजामृतपान विशुद्ध भावना एवं ध्यान अथवा आत्मानुभूति मूलक ग्रन्थ है । निजात्मा के कल्याण हेतु सार रूप में यह सुधासिंधु ही है। मंगल कामना में दोहों में यह भाव ग्रहणीय है.
विस्मृत मम हो विगत सर्व विगलित हो मदमान । ध्यान निजातम का करूँ करूँ निजी गुण-गान ॥ सादर शाश्वत सारमय समयसार को जान। गट गट झटपट चाव से करूँ निजामृतपान ॥२॥
आचार्य श्री द्वारा रचित दोहे तो इस 'निजामृतपान' रूपी भवन के शिखर पर मानो कलश रूप ही हैं। वैसे तो ग्रन्थ ही मौलिक सा लगता है, परन्तु ये ४५ दोहे
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तो उनकी निजी मौलिक काव्यनिधि की शोभा हैं। इन दोहों में कबीर, तुलसी, भूधर, बिहारी एवं बुधजन के सम्मिलित रूप के दर्शन होते हैं। यदि इन दोहों को कृति में स्थान न मिला होता, तो वस्तुतः यह आत्मानन्दरसिकजनों का उत्कृष्ट कण्ठहार सम्भवतः न बन पाती, जैसे रसपूर्ण कलश यदि छलकता नहीं, तो उसका गौरव प्रसिद्ध नहीं हो पाता, उसी प्रकार निजामृतपान कलश रसपूर्ण होने पर भी दोहों की समष्टि से छलकता हुआ न होता, तो सम्भवतः अध्यात्मरसिकों को पर्याप्त आल्हादित न कर पाता। यह इस कृति की सफलता का मानक है एकादि दोहों का रसास्वादन करें।
दृग व्रत चिति की एकता मुनिपन साधक भाव । साध्य सिद्ध शिव सत्य है, विगलित बाधक भाव ॥ साध्यसाधक अधिकार पु. १ ॥ साध्य साधक ये सभी सचमुच में व्यवहार । निश्चयनय मय नयन में समय समय का सार ॥ २ ॥
निजामृत के दोहों को भक्ति रस का पुट देकर आचार्यश्री ने उपयोगी बनाया है, ठीक ही है। भक्ति ही समयसार प्राप्ति का प्रथम सोपान होती है। हृदयकमल - को विकसित करने हेतु एवं उसे परम आध्यात्मिक सुगन्ध युक्त करने हेतु यह अनिवार्य कारण है। यही भाव निम्न पद्य में प्रकट किया गया है
कुन्दकुन्द को नित नयूँ हृदयकुन्द खिल जाय । परम सुगन्धित महक में जीवन मम घुल जाय ॥ प्रारम्भ ४, समापन - ३ ॥ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने प्रारम्भिक मंगलाचरण के रूप में ३ दोहे रचे हैं, पुनः अन्तिम मंगल के रूप में भी उनकी पुनरावृत्ति की है। वे तीन दोहे वर्तमान में आबालवृद्ध को कंठस्थ हैं, जन-जन में उनका प्रचार है। उन तीन में से 'कुन्दकुन्द को ......' आदि ऊपर दोहा लिखा है। अग्रिम दोहे भी उद्धृत किये हैं, ये भक्तिक्षेत्र के अलंकार बने हुए हैं ।
अमृतचन्द से अमृत है झरता जग अपरूप । पी पी मन मन मृतक भी अमर बना सुख रूप तरणि ज्ञानसागर ज्ञानसागर गुरो गुरो तारो तारो मुझे ऋषीश । करुणा कर करुणा करो कर से दो आशीष ॥
समयसार शुद्ध अध्यात्म एवं द्रव्यानुयोग का ग्रन्थराज है, किन्तु प्रस्तुत अध्यात्म में नीति का समावेश 'निजामृत पान' की शोभा में चार चाँद लगा रहा है,
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मार्च 2009 जिनभाषित 11 www.jainelibrary.org