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महावीर होने के मायने
महावीर की प्रासंगिकता या महावीर का महत्त्व जैसे शीर्षकों से अब सामान्यतः अरुचि होने लगी है, क्योंकि प्राय: इस तरह के शब्द हर सामान्य पुरुष / महापुरुष के लिये, उनके स्मरण किये जाते समय प्रयोग केये जाते हैं। कभी-कभी तो अपूज्यों के लिये भी बड़े बड़े ऐसे ही शब्द विशेषण बतौर लगा दिये जाते हैं, इसीलिये कहा जाता है कि इन दिनों शब्द अपने मूल अर्थ खोने लगे हैं। वे अपना सटीक प्रभाव नहीं छोड़ पाते हैं, चलताउ हो गये हैं। उदाहरण के लिये मीडिया ने इन दिनों, राजनीतिक गुण्डों के लिये एक आध्यात्मिक और पारम्परिक प्रचलित शब्द 'बाहुबलि' का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है। एक युग से बाहुबलि शब्द, प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ प्रभु के कनिष्ठ और महान् आत्मसाधक पुत्र बाहुबलि के लिये ही प्रयोग किया जाता रहा है, जिन की विश्वप्रसिद्ध विशालतम सुन्दर मूर्ति श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) में मानवाकर्षण का एक ऐतिहासिक अद्वितीय कलाविम्ब है । इन्हीं बाहुबलि के बड़े भाई महाराज भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। अब मीडिया के लोगों को कौन समझाये कि जिन गुण्डों को आप बाहुबलि कह रहे हैं, उनमें एक भी गुण तो दूर वे उन भगवान् बाहुबलिस्वामी के चरणरज बरावर भी नहीं हैं, न ही उनमें शाब्दिक ही अर्थ शेष है। यदि यह शाब्दिक दुरुपयोग जारी रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि भगवान् बाहुबलि में ही अतीत को नहीं समझने वाली नई पीढ़ी, आज के राजनैतिक गुण्डों की छवि देखने लगे। क्योंकि ऋणात्मक प्रभाव ही मनोवैज्ञानिकरूप से जल्दी पड़ता है। एक और जैन प्रचलित शब्द है 'सल्लेखना', जिसका आध्यात्मिक अर्थ समझे बिना लोग इसे आत्महत्या मनवाने पर उतारू हैं, क्योंकि ये लोग तो सामान्य मौत या कुत्ते की मौत भर जानते हैं। दूर क्यों जाते हैं, मीडिया में क्रिकेट मैचों को युद्ध का रूप देने में शब्दों के दुरुपयोग पर कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है । कमेण्ट्री में कहा जाता है... कुचल दो पाकिस्तान को..., लूट लो श्रीलंका को,... गेंद डालो आस्ट्रेलिया
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कैलाश मड़बैया
को, बचने न पायें अफ्रीकन... इत्यादि । क्या कोई टीम दुश्मन देश होती है या क्रिकेट खेल नहीं, युद्ध होता है ? आखिर बाजारवाद कहाँ ले जायेगा हमें...? मीडियाकर्मी साहित्य की गहराई में जाना ही नहीं चाहते? विज्ञापनों में शब्दों के दुरुपयोग और द्विअर्थी संवादों ने साहित्य, समाज और संस्कृति की ऐसी-तैसी कर रखी है। इसलिये महावीर जैसे युगप्रवर्तक तीर्थंकर के लिये शब्दों का उपयोग करने में सतर्कता आवश्यक है, क्योंकि महावीर स्वयं में ही बाह्य शत्रुओं को जीतकर नहीं, अन्तः के दुश्मनों को जीतकर आत्मसाधना से महान् बनने का नाम है। महावीर स्वामी ने लगभग २६०० वर्ष पूर्व स्व में उतरने के जो वैज्ञानिक प्रयोग किये थे, उन्हें विज्ञान भले आज सिद्ध न कर पाया हो, पर वह क्रान्तिकारी महावीर ही थे, जिन्होंने मानव / पशु बलि के पाखण्डवाले उस पतित युग में कहा था कि मुक्ति / मोक्ष के लिये किसी ईश्वर की भक्ति की आवश्यकता नहीं हैं, वरन् स्वयं को पर्त दर पर्त उघाड़ कर आत्मस्थ होने की आवश्यकता है। पर तब तो इसको गहराई से समझे बिना जैनधर्म पर ही नास्तिक होने का आरोप लगा दिया गया था। वह तो महावीर को तब समझ गया जब आइन्सटीन जैसे वैज्ञानिक ने सापेक्षवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित कर दिया । इसलिये आइये, तीर्थंकर महावीर ने जिन प्रमुख जैनसिद्धान्तों को अनावृत किया था, उन्हें संक्षेप में व्याख्यायित करने की विनम्र कोशिश करें ।
अनेकान्त दर्शन- महावीर के काल अर्थात् ईसा से ५९९ ई० पूर्व तक लोगों में अरस्तू का ही यह सिद्धान्त प्रमुखता प्रचलित था कि क, क है और ख, ख है । क, ख नहीं हो सकता और ख, क नहीं। पर महावीर ने समझाया कि एक व्यक्ति पुत्र के लिये पिता, पत्नी के लिये पति, पिता के लिये पुत्र बहिन के लिये भाई अर्थात् अलग-अलग रूप हो सकता है। इसलिये वस्तु का स्वरूप सापेक्ष होता है, ठीक पाँच अंधों के अलगअलग रूप में हाथी को देखने के अनुभवों की तरह । पर भिन्न-भिन्न अनुभव होने के बावजूद हाथी तो सभी को देखा हुआ समग्र अनुभव ही होता है न कि किसी
मार्च 2009 जिनभाषित 23
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