Book Title: Jinabhashita 2009 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ सम्यकुरुझान हो वह व्यवहार सम्यग्ज्ञान होता है। बृहद्रव्यसंग्रह में भरतचक्रवर्ती के क्षायिक सम्यग्दर्शन को व्यवहार सम्यग्दर्शन कहा है यथा 'एषाम् भरतादीनाम् यत् सम्यग्दर्शनम् तत्तु व्यवहार सम्यग्दर्शनम्।' अर्थ इस प्रकार इन भरतादिकों के जो सम्यग्दर्शन है, वह व्यवहारसम्यग्दर्शन है। यहाँ यह भी जानना चाहिए कि कुछ स्वाध्यायी लोगों की ऐसी धारणा है कि प्रथम नरक में स्थित राजा श्रेणिक के जीव के निश्चय सम्यग्दर्शन है अथवा निश्चय-व्यवहार दोनों सम्यग्दर्शन हैं। ऐसे जीवों की धारणा आगम सम्मत नहीं है, गलत है। क्योंकि निश्चय सम्यक्त्व, निश्चय चारित्र के बिना कभी नहीं होता। नरक में निश्चय सम्यक्चारित्र का नितान्त अभाव है। अतः राजा श्रेणिक के जीव के मात्र क्षायिक सम्यक्त्वरूप व्यवहारसम्यग्दर्शन मानना ही आगमसम्मत है। इस प्रकार मिध्यादृष्टि के व्यवहारसम्यक्त्व मानना आगमसम्मत नहीं है। प्रश्नकर्त्ता - सौ० कुसुमकुमारी, जयपुर । जिज्ञासा- प्रातः काल आहार बनाना कब प्रारंभ करना चाहिए। समाधान- वर्तमान में देखा जाता है कि जिन स्थानों पर मुनिराज आदि का चातुर्मास चल रहा होता हैं, वहाँ भक्तगण सूर्योदय से पूर्व ही भोजन बनाने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देते है, अर्थात् उनकी रसोई में गैस का जलना प्रारम्भ हो जाता है और कुकर की सीटी बोलने लगती है। यह प्रयास उचित नहीं है। श्रावकाचारों के अनुसार सूर्योदय के पश्चात् ही कूटना - पीसना, आग जलाना आदि कार्य होना चाहिए। अन्यथा सूर्योदय से पूर्व उपर्युक्त क्रियाओं से उत्पन्न आहार में रात्रिभोजन का दोष लगता है। घर में भी यदि कोई सदस्य सूर्योदय से पूर्व ही देशान्तर जा रहा हो, तो उसके लिए पहले दिन ही शाम को भोजन बनाकर रखना उचित है। सूर्योदय से पूर्व भोजन बनाकर देना रात्रि भोजन सदृश दोषपूर्ण कहलाएगा। हमको चामुर्मास आदि के दौरान या अन्य समयों में सर्वप्रथम सूर्योदय के बाद भक्ति-भाव से जिनेन्द्रपूजा करनी चाहिए। तदुपरान्त आहार आदि बनाने की क्रिया या कूटना - पीसना आदि प्रारम्भ करना चाहिए । कुछ दाताओं का ऐसा भी कहना है कि यदि इतनी जल्दी आहार बनाना प्रारम्भ न करें, तो आहार की इतनी सारी वैरायटी 30 मार्च 2009 जिनभाषित Jain Education International कैसे बनेंगी? ऐसे महानुभावों से निवेदन है कि साधु को वही सात्त्विक आहार देना चाहिए, जो वे स्वयं करते हों। पूरे दक्षिण भारत में यही परम्परा है। रात्रि में भोजन बनाना प्रारम्भ करके अधिक वैरायटी बनाना किसी भी प्रकार उचित नहीं । - प्रश्नकर्त्ता पं० मनीष शास्त्री, जबलपुर। जिज्ञासा- क्या मुनिराज पेड़-पौधे उखाड़ने का जमीन खोदने का, धर्मशाला आदि बनाने का निर्देश दे सकते हैं? चरणानुयोग के ग्रन्थों के अनुसार सप्रमाण उत्तर दीजिए । समाधान- उपर्युक्त क्रियाओं का निर्देश तो आरम्भत्याग प्रतिमा नामक आठवीं प्रतिमाधारी श्रावक भी नहीं दे सकता, फिर अहिंसामहाव्रतधारी मुनियों का तो प्रश्न ही नहीं है। कुछ आगमप्रमाण इस प्रकार हैं १. श्री मूलाचार गाथा ३५ की टीका में इस प्रकार कहा है- 'सावद्ययोगेभ्यः आत्मनो गोपनं गुप्तिः । सा च मनोवाक्कायक्रियाभेदात्त्रिप्रकाराः ।' अर्थ- सावद्य अर्थात् पापयोग से आत्मा का गोपन अर्थात् रक्षण करना गुप्ति है। इसके मन-वचन और काय का क्रिया के भेद से तीन भेद हो जाते हैं। अर्थात् सावद्य परिणामों से मन को रोकना मनोगुप्ति है, सावद्य वचनों को नहीं बोलना वचन- गुप्ति है और सावद्य काययोग से बचना कायगुप्ति है। २. श्रीमूलाचारप्रदीप में इस प्रकार कहा हैशिलादि'शिलादि --- योगैराद्यव्रताप्तये।' (श्लोक नं. ५६ से ६० ) अर्थ - शिला, पर्वत, धातु, रत्न आदि में बहुत से कठिन पृथ्वीकायिक जीव रहते हैं तथा मिट्टी आदि में बहुत से कोमल पृथ्वीकायिक जीव रहते हैं तथा उनके स्थूल सूक्ष्मादि अनेक भेद हैं। इसलिए मुनिराज अपने हाथ से, पैर से ऊँगली से लकड़ी से सलाई से या खप्पर से पृथ्वीकायिक जीवसहित पृथ्वी को न खोदते हैं, न खुदवाते है, न उस पर लकीरें करते हैं न कराते हैं, न उसे तोड़ते हैं, न तुड़वाते हैं, न उस पर चोट पहुँचाते हैं, न चोट पहुँचवाते हैं तथा अपने हृदय में दयाबुद्धि धारण कर न उस पृथ्वी को परस्पर रगड़ते हैं, न उसको किसी प्रकार की पीड़ा देते हैं। यदि कोई अन्य भक्त पुरुष उस पृथ्वी को खोदता है, या उस पर लकीरें करवाता है, उस पर चोट मारता है, रगड़ता है या अन्य किसी प्रकार से उन जीवों को | - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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