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मुख्यः परिणामान्तरसंक्रमात्, मुक्तेषु तदभावात् गौणः कल्प्यते । संसारिणो संसार्य संसारित्वव्यपेतास्त्वयोगकेवलिनोऽभीष्टास्ते उपलब्धिसामान्यात्। (२/१०/५)
| येन समुच्चीयन्ते। अर्थ- ससुच्चय अर्थ होने से 'च' शब्द को प्रयोग | अर्थ- शंका- सूत्र में आया 'च' शब्द अनर्थक करना व्यर्थ है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि | है! सामधान- नहीं, इष्टभेद का समुच्चय करने के लिए 'च' शब्द उपयोग के गुणभाव का प्रदर्शन कराने के | 'च' शब्द दिया गया है, जिससे सयोगकेवली नो-संसारी लिए दिया गया है॥ ४॥ अर्थ भिन्न-भिन्न होने से 'च | जीव हैं, शेष सभी संसारी जीव हैं, किन्तु अयोगकेवली शब्द के बिना ही समुच्चय का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि | असंसारी जीव हैं, इस अभीष्ट अर्थ का समुच्चय हो संसारी भिन्न है और मुक्त भिन्न है- यथा पृथ्वी, अप्, | जाता है। अग्नि, वायु आदि का संसारी कहा है, इसलिए विशेषण- तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः परस्परसमुच्चये वर्तते। विशेष्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, ऐसा भी कहना | संसारिणश्च जीवा भवन्ति, मुक्ताश्च जीवा भवन्तीति उचित नहीं है, क्योंकि सूत्र में 'च' शब्द समुच्चयार्थक | समुच्चस्यार्थः। नहीं है, किन्तु अन्वाचय अर्थ में है। संसारी जीवों में | अर्थ- चकार शब्द परस्पर समुच्चय के लिए है। उपयोंग की मुख्यता और मुक्त जीवों में उपयोग की | संसारी जीव होते हैं और सिद्ध जीव होते हैं। दोनों के गौणता बताने के लिए 'च' शब्द दिया है, जैसे- देवदत्त समुच्चय के लिए 'च' शब्द दिया है। को लाओ भिक्षा कराओ। इसमें भिक्षा कराओ यह पद आचार्य श्री विद्यासागर जी- मुक्त भी कई प्रकार . प्रधान है ओर देवदत्त को लाओ यह गौण है। प्रश्न- के होते हैं जैसे- संसारमुक्त, जीवनमुक्त आदि एवं संसारी संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता और मुक्त जीवों | भी कई प्रकार के होते हैं जैसे-त्रस, स्थावर आदि। इन में गौणता क्यों है?
सबके समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' पद दिया है। उत्तर- परिणामान्तर के संक्रमण का अभाव होने | भावार्थ- सत्र में आये 'च' शब्द से संसारी जीवों से ध्यान के समान, जैसे- एकाग्रचिन्तानिरोधरूप ध्यान | के तीन भेद किए हैं- १. बारहवें गुणस्थान तक के छद्मस्थों के मुख्य है, क्योंकि चित्त के विक्षेपवाले | संसारी जीव २. तेरहवें गुणस्थान वाले नोसंसारी जीव छद्मस्थों के चिन्तानिरोध की उत्पत्ति होती है, परन्तु केवली | ३. चौदहवें गुणस्थानवर्ती असंसारी जीव हैं। उपयोग की भगवान् के मानसिक विक्षेप नहीं है, सिर्फ ध्यान का | मुख्यता और गौणता के लिए भी 'च' शब्द प्रयुक्त है, फल कर्म- ध्वंस देखकर उनमें उपचार से ध्यान कहा जिससे संसारी जीवों में उपयोग की मुख्यता है और जाता है, उसी प्रकार संसारियों में उपयोग बदलता रहता | मक्त जीवों में उपयोग की गौणता है, यह बात फलित है, इसलिए मुख्य है और मुक्तात्माओं में सतत एकसी | हो जाती है। संसारी भी जीव होते हैं तथा मुक्त भी धारा रहने के कारण गौण है।
जीव होते हैं तथा ये कई प्रकार के होते हैं। इन सबके श्लोकवार्तिक- 'च' शब्दोऽनर्थक इति चेन्न | समच्चय के लिए 'च' शब्द दिया है। इष्टविशेषसमुच्चयार्थत्वात्। नो- संसारिणः सयोगकेवलिनः |
___ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के जैन-बौद्धदर्शन विभाग में संगोष्ठी सम्पन्न
संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकाय द्वारा आयोजित अखिल । जैन-बौद्ध की तत्त्वव्यवस्था की मौलिक विशेषताओं पर भारतीय शास्त्रसंगोष्ठी के अन्तर्गत जैन-बौद्ध दर्शन विभाग | प्रकाश डाला तथा अनेकान्तात्मक पद्धति से वस्तु विश्लेषण द्वारा 'जैन-बौद्ध शास्त्रेषु तत्त्वविमर्शः' विषय पर विचार | पर बल दिया। गोष्ठी का आयोजन दिनांक १८.१.०९ को पूर्व कलासंकाय
सत्र की सम्पूर्ति में विभागाध्यक्ष प्रो० कमलेशप्रमुख प्रो० सुदर्शनलाल जैन की अध्यक्षता तथा चण्डीगढ़ | कुमार जैन ने अतिथियों के प्रति आभार व्यक्त किया। विश्वविद्यालय के पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो० धनराज | कार्यक्रम का कुशल संयोजन विभाग के शोधच्छात्र श्री शर्मा के मुख्यातिथ्य में किया गया।
पंकजकुमार जैन ने किया। __ अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो० सुदर्शनलाल जैन ने विभिन्न
डॉ० कमलेशकुमार जैन भारतीय दर्शनों में तात्त्विक व्यवस्था का वर्णन करत हुए
20 मार्च 2009 जिनभाषित
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