Book Title: Jinabhashita 2008 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ ब्रह्मचर्य : चेतन का भोग आचार्य श्री विद्यासागर जी ५ ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः सही-सही मायने में है- | जहाँ पर हैं, वहीं पर जीवन है, यह मैं भी मानता हूँ, चेतन का भोग। ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं | लेकिन जिसे आप भोग समझते हैं, उसको मैं भोग नहीं है, भोग के साथ एकीकरण और रोग-निवृत्ति है। समझता, उसे तो मैं रोग समझता हूँ। आपके भोग का जड़ के पीछे पड़ा हुआ व्यक्ति, चेतनद्रव्य होते | केन्द्र भौतिक सामग्री है और मेरे भोग की सामग्री बनेगीहुए भी जड़ माना जायेगा। जिस व्यक्ति के जीवन का | 'चैतन्यशक्ति'। लक्ष्य आत्मा नहीं है, वह गुलाम है। बोध की चरम विषयवासना मृत्यु का कारण है, मृत्यु दुःख है, सीमा होने के उपरान्त ही शोध हुआ करता है। उस | दुःख का कूप है और ब्रह्मचर्य जीवन है, आनन्द है, बोध को ही शोध समझ लें, तो गलत है और आज | सुख का कूप है। आप सुख चाहते हैं, दुःख से निवृत्ति यही गलती हो रही है। शोध का अर्थ है- अनुभूति | चाहते हैं, तो चाहे आज अपनायें, चाहे कल अपनायें, होना। | कभी भी अपनायें, किन्तु आपको अपनाना यही होगा। मणिमय मन हर निज अनुभव से झग-झग झग-झग करती है, | रोग की निवत्ति के लिए औषधपान परमावश्यक होता तमो-रजो अरु सतो गुणों के गण को क्षण में हरती है।। समय-समय पर समयसारमय चिन्मय निज ध्रुव मणिका को, | है, बिना औषधपान के रोग ठीक नहीं हो सकेगा। नमता मम निर्मम मस्तक तज मृणमय जड़मय मणिका को॥ भगवान् महावीर ने जो चौथा सूत्र ब्रह्मचर्य का (निजामृतपान/९) दिया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है, अपने में पूर्ण है। आज धर्मप्रेमी बन्धुओ! भगवान् महावीर ने जो सूत्र हमें | तक जितने भी अनन्त सुख के भोक्ता बने हैं, उन सबने दिये हैं, उनमें पाँच सूत्र प्रमुख हैं, उनमें से चौथा सूत्र इसका समादर किया है और जीवन में अपनाया है, अपने है ब्रह्मचर्य जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जीवन में इसको स्थान दिया है, मुख्य सिंहासन पर पतित से पावन बनने का यह एक अवसर है। विराजमान कराया है इसे, भोग-सामग्री को नहीं। ब्रह्मचर्य यदि हम इस सूत्र का आलम्बन लेते हैं, तो अपने आपको | पूज्य बना, किन्तु भोगसामग्री आज तक पूज्य नहीं बनी। पवित्र बना सकते हैं। ब्रह्मचर्य की व्याख्या आप लोगों हो, ब्रह्मचर्य पूज्य तो आपकी दृष्टि में भी बना, किन्त के लिए नई नहीं है, किन्तु पुरानी होते हुए भी उसमें पूजा तो भोग-सामग्री की हो रही है आप लोगों के द्वारा, नयेपन के दर्शन अवश्य मिलेंगे। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यह एक दयनीय बात है, दुःख की बात है। साहित्य अपनी परोन्मुखी उपयोगधारा को स्व की ओर मोडना या अन्य कोई दार्शनिक-साहित्य देखने से विदित होता बहिर्दृष्टि अन्तर्दृष्टि बन जाये, बाहरी पथ-अन्तर पथ बन | है कि आत्मा को सही-सही रास्ता तभी मिल सकता जाये। बहिर्जगत् शून्य हो जाये, अन्तर्जगत् का उद्घाटन | है, जब कि हम उस साहित्य का अध्ययन, मनन, चिन्तन हो जाये। यह ध्यान रहे कि ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः । व मन्थन कर। हम मात्र उसे सुनते है। सुनने से पहले सही-सही मायने में है- 'चेतन का भोग।' ब्रह्मचर्य का यह सोचना होगा कि हम क्यों सुन रहे हैं उसको? दवाई अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं, भोग के साथ एकीकरण और | लेने से पूर्व हम, यह निर्णय अवश्य करते हैं कि दवा रोगनिवृत्ति है। जिसको आप लोगों ने भोग समझ रखा क्यों ली जाये? एक घण्टे यदि श्रवण करते हैं, तो मैं है वह है रोग का मूल और ब्रह्मचर्य है जीवन का एक समझता हूँ कि इसके लिए कम से कम आठ घण्टे मात्र स्रोत। चिन्तन-पनन-मन्थन आवश्यक है। मैं कैसे खिलाऊँ आप दस साल विगत प्राचीन बात है, एक विदेशी आया | | लोगों को, कैसे पिलाऊँ आप लोगो को, क्योंकि आप था, कह रहा था कि ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना कठिन है, आप | लोगों की पाचन की ओर दृष्टि ही नहीं हैं, वह पचेगा इसे न अपनायें, क्योंकि आज के जितने भी वैज्ञानिक | नहीं तो दुबारा खिलाना ही बेकार चला जायेगा। उस हैं. उन सबने यह सिद्ध कर दिया है कि भोग के बिना खाये हुये अन्न को मात्र विष्ठा नहीं बनाना है. उसमें जीवन नहीं है। मैंने भी उन्हें यही समझाया कि भोग | से सार-भूत तत्त्व को अपनी जठराग्नि के माध्यम से - मई 2008 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36