Book Title: Jinabhashita 2008 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ के पुरुषार्थी सुपुत्र श्री अरविंद भाई का अंतर्जातीय विवाह | वाणिज्य और शिल्प का ज्ञान कराया। धर्म, अर्थ, काम हुआ और शास्त्रार्थ के लिए अगुवा बनाए गए पं. जी | पुरुषार्थ और बाद में मोक्ष का मार्ग बताया। वर्णमाला सा. की विचारधारा को प्रश्नचिन्हित कर दिया। अभी | और अङ्क विद्या की शिक्षा दी। त्रिवर्ण समाज व्यवस्था भी सजातीय विवाह के समर्थन-कर्ताओं के घर में | में उन्होंने राज्य शासन एवं प्रजा-समाज की व्यवस्था अंतर्जातीय और विजातीय लडकियाँ विवाहित होकर घर | के नियम बनाए। आपने वर्ण व्यवस्था की सुरक्षा हेत की शोभा बढ़ा रही हैं। विचित्र विरोधाभास है आगमज्ञ | विवाह के नियम बनाए। एवं समाजसुधारकों के जीवन में। (स्मृतिग्रंथ, पृ. 98/99) | वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत विवाह व्यवस्था का वर्णन सागारधर्मामृत : उक्त प्रकरण पढ़कर सागारधर्मामृत | सोलहवें पर्व के श्लोक 247 में है, जो इस प्रकार हैपढने की प्रेरणा हुई। उसके एकादश अध्याय (द्वितीय शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या तां स्वां च नैगमः। अध्याय) का श्लोक इस प्रकार है वहेत् स्वां ते च राजन्यः स्वां द्विजन्मा क्वचिच्च ताः॥ आधानादिक्रियामन्त्र-व्रताद्यच्छेदवाञ्छया । (16-247) प्रदेयानि सधर्मेभ्यः कन्यादीनि यथोचितम्॥ 57॥ अर्थ- शूद्र, शूद्र कन्या के साथ ही विवाह करे, अर्थ- गर्भाधान आदि क्रियाएँ उन क्रियाओं संबंधी | वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कन्या से विवाह नहीं मंत्र अथवा पंच नमस्कार मंत्र और मद्य आदि के त्यागरूप | कर सकता। वैश्य, वैश्य कन्या और शूद्र कन्या के साथ व्रतों को सदा बनाए रखने की इच्छा से यथायोग्य कन्या विवाह करे। क्षत्रिय, क्षत्रिय कन्या, वैश्य कन्या और शूद्र आदि साधर्मी को देना चाहिए। विशेषार्थ में लिखा है | कन्या के साथ विवाह करे तथा ब्राह्मण, ब्राह्मण कन्या कि यदि लड़की अजैन कुल में जाती है तो उसके | के साथ ही विवाह करे, परन्तु कभी किसी देश में वह व्रत, नियम, देव-पूजा, पात्रदान सब छूट जाते हैं। इस | क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र कन्याओं के साथ भी विवाह तरह से धर्म ही छूट जाता है। यदि अपने समान न | कर सकता है। । मिले तो मध्यम पात्र को भी देने का विधान है, किन्तु | (आदि पुराण, भाग-1, पृ. 368) विधर्मी या अधर्मी को देने का विधान नहीं किया है। धवला के अनुसार एकेन्द्रियादि पाँच जातियाँ होती श्लोक 58 में कन्यादान की विधि और उसका | हैं और अतीत जातिरूप स्थान भी है। (धवला 2/1फल दिया है। विशेषार्थ में लिखा है कि भारत में विवाहिता | 1/412/4)। यह प्रस्तुत प्रकरण से असम्बद्ध है। को केवल पत्नी नहीं कहते, धर्मपत्नी कहते हैं क्योंकि आचार्य कल्प पं. आशाधरजी कृत सागारधर्मामृत वह पति के धर्म की भी सहचारिणी होती है। पत्नी एवं आचार्य जिनसेन कृत आदिपुराण की समाजव्यवस्था के योग्य होने पर ही, पति का भी योगक्षेम चलता है | से यह स्पष्ट है कि वर्षों की स्थिति के अनुसार साधर्मी और धर्मसाधन होता है। | बन्धुओं के मध्य शादी-विवाह करना मान्य है। इसका श्लोक 59 में कहा है कि सत्कन्या देनेवाले पिता | फलित परिणाम यह है कि वैश्य साधर्मी वैश्य और को अपने साधर्मी का उपकार करने से महान् पुण्य बंध साधर्मी शूद्र कन्या के साथ भी विवाह कर सकता है। होता है। विवाहसंबंध विभिन्न गोत्रवाले साधर्मी बन्धुओं ऐसी स्थिति में साधर्मी जैन उपजातियों के मध्य विवाहमें होता है। यदि लड़की जन्मजात जैन नहीं है तो, उसको | संस्कार होना सहज-सामान्य है. इसमें आगमिक बाधा महापुराण के 38-39 पर्यों में वर्णित विधि से जैनधर्म नहीं है। विधर्मी वैश्य एवं सगोत्री-सहधर्मी के मध्य विवाह में दीक्षित करके विवाह करना चाहिए। यही शास्त्र की | सम्बन्ध वर्जित है। पं. आशाधर जी ने यह अवश्य निर्देश आज्ञा है। साधर्मी अर्थात् अंतर्जातीय विवाह मान्य है, | दिया है कि कन्या निर्दोष हो, वर कलीन और सुशील आगमोक्त है। सजातीय संबंध न मिले तो अंतर्जातीय | हो। कहा है- कुल, शील, सनाथता, विद्या, धन, शरीर साधर्मी विवाह आगमोक्त है। और आयु इन सात गुणों की परीक्षा करके ही कन्या आदिपराण-भाग 1: आदिब्रह्मा भ. ऋषभदेव | देनी चाहिए। प्रथम कल को स्थान दिया है। अकलीन ने प्रजाजनों के हितार्थ क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों की | को कन्या कभी भी नहीं देना चाहिए। स्थापना कर, आजीविका हेतु असि, मसि, कृषि, विद्या, | प्रख्यात शोधमनीषी स्व. श्री नाथूरामजी प्रेमी के मई 2008 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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