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साधर्मी-विवाह-सम्बन्ध आगमोक्त
डॉ० राजेन्द्रकुमार 'बंसल '
आचार्य पद्मनन्दि के ‘पद्मनंदि पंचविंशतिका' के । वाले धर्मचन्द्र नाम के जैन युवक ने अंग्रेज युवती से निम्न श्लोक में कलिकाल में श्रावक का महत्त्व दर्शाया शादी की। उसका पिता उच्च पद पर था और लड़की गया हैने जैनधर्म स्वीकार लिया था। समाज ने देवदर्शन का घोर विरोध किया। पं. श्री देवकीनन्दन जी ने साहस पूर्वक मंदिरजी के द्वार खुलवाकर नव-युगल को मंदिर में प्रवेश कराया और मंच से उन्हें मंगल आशीर्वाद भी दिया । (स्मृतिग्रंथ - पृ.77)
संप्रत्यत्र कलौ काले जिनगेहे मुनिस्थितिः । धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ॥ 6/6 अर्थ - इस कलिकाल में जिनालय, मुनि, धर्म और दान, इन सबका मूल कारण श्रावक है। श्रावक न हो तो इनमें से, कोई भी रक्षित नहीं रह सकता। इन सब की स्थिति तभी तक है, जब तक श्रावक और श्राविकाओं में धार्मिक प्रेम है ।
गृहस्थ जीवन का आधार विवाह है। विवाह सम्बन्ध किनके मध्य हो, इसका निर्धारण आगम के, आलोक में, सुनिश्चित सामाजिक परम्पराओं द्वारा होता है। ये परम्पराएँ देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार अपने मूल सिद्धान्त को कायम रखते हुए बदलती रहती हैं। विवाहपद्धति आदि में भी तद्नुसार परिवर्तन होता रहता है। जैन समाज में विवाह सम्बन्धों की आगमिक व्यवस्था पर प्रकाश डालना इस आलेख का उद्देश्य है ।
समाज में दो विचारधाराएँ प्रवहमान हैं। महासभा के अनुसार अपनी-अपनी जाति में ही विवाह सम्बन्ध होना चाहिए। इसे सजातीय विवाहप्रथा कहते हैं। और विधवाविवाह नहीं होना चाहिए। परिषद् के अनुसार, अंतर्जातीय और विधवा विवाह करना समाज के हित में है, अतः उसको करना चाहिए ।
विद्वत्परिषद के खुरई अधिवेशन में पं. देवकीनन्दन जी सिद्धांतशास्त्री स्मृतिग्रंथ उपहार में मिला था, उसका अध्ययन कर रहा था । बहुत ही रोचक और प्रेरक ग्रंथ है। तत्कालीन समाजिक चिंतन का दर्पण भी है। पं. जी सा. निःस्पृही, निरभिमानी, स्वाभिमानी, आगमवेत्ता, समाजसुधारक, शिक्षा-विद्, समस्या निवारक और साहसी वृत्ति के थे । व्याख्यान वाचस्पति के नाम से प्रसिद्ध थे । स्मृतिग्रंथ के दो प्रसङ्ग प्रस्तुत हैं
1. सन् 1937-38 में परवारसभा अधिवेशन जबलपुर में आयोजित था। पं. जी सा. सभापति थे, गजरथविरोधी वातावरण था । विस्फोटक स्थिति थी। पं. जी सा. ने समाधान निकाला। वहाँ फेरी द्वारा कपड़ा बेचने । 22 मई 2008 जिनभाषित
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2. दिनाङ्क 9 - 10 नवम्बर 1933 को ब्यावरा (राज.) में शास्त्री परिषद् का अधिवेशन था। वहाँ परम पू. आचार्य शांतिसागर जी (दक्षिण) और आ. शांतिसागर जी (छाणी) दोनों विराजमान थे । शास्त्री परिषद् के सभापति श्री सेठराव जी सखाराम दोशी थे । वे श्री पं. मक्खनलाल जी आदि विद्वानों के सहयोग से 'अंतर्जातीय विवाह शास्त्रानुकूल नहीं है, यह शास्त्रविरुद्ध है'- यह प्रस्ताव पास कराना चाहते थे । इसका चक्रव्यूह रचा गया। श्री पं. देवकीनन्दन जी को कारंजा से बुलाया गया। पं. जी अंतर्जातीय विवाह को आगम विरुद्ध नहीं मानते थे। वहाँ पं. जी के साथ, पं. श्री धन्नालाल जी के साथ गरमा-गरमी भी हुई। रात्रि में विषयसमिति में दर्दनाक दृश्य उपस्थित हुआ। पं. जी को दबाने का बहुत प्रयास किया गया। उन्होंने कहा कि विदर्भ में गंगेरवाल जैन जाति के 100-200 सगोत्री घर हैं। उन्होंने कहा कि सगोत्री शादी की अपेक्षा साधर्मी बंधुओं में परस्पर विवाह करना अधिक अच्छा है। इससे जैनजातियाँ बनी रहेंगी।
दूसरे दिन शास्त्रार्थ हेतु प्रतिपक्षियों ने बहुत प्रयास किया। पं. अजितकुमार शास्त्री और पं. शोभाचंद जी भारिल्ल ने पं. जी का सहयोग करने को कहा, किन्तु पं. देवकीनन्दन जी ने विश्वासपूर्ण शब्दों में कहा- 'मुझे और शास्त्रों के प्रमाणों की कोई आवश्यकता नहीं है, मेरा सागारधर्मामृत इस के लिए काफी है।' पं. जी सा. ने पू. आचार्य श्री को भी सचेत किया- 'महाराज ! मुझे शास्त्रार्थ के लिए सभा में खड़ा मत करिए । सभा जीतना मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल है।'
दो दिन तक पूरा प्रयत्न करके शास्त्रार्थ टाला ही गया। चर्चा मात्र में गर्मी पूरी वह गयी । 'भाव्यवश्यं भवेदेव' होनहार हो कर होती ही है। स्वयं सभापति दोशी जी
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