Book Title: Jinabhashita 2008 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ साहू श्री नेमिचन्द्र पं० कुन्दनलाल जैन साहू नेमिचन्द्र अपने समय के बड़े धार्मिक, अति | जब वे शिकार खेलने गये तो दिल्ली के आस-पास धनिक एवं प्रतिष्ठित श्रेष्ठी थे। उन्हें देव, शास्त्र और | आकर उन्होंने देखा कि एक खरगोश उनके शिकारी गुरु पर असीम आस्था थी। उनके विषय में विस्तार | कुत्ते से जूझ रहा है और उसे दुःखी कर रहा है। से लिखने से पूर्व उन महाकवि का परिचय कराना | इसे देख राजा कल्हण बड़े विस्मित हुए और उन्होंने नितान्त आवश्यक है, जिनके कारण साहू नेमिचन्द्र की इसे वीर-भमि समझ वहाँ एक लोहे की कील्ली गाड यशोगाथा अमर हो गई और लोग उन्हें आज श्रद्धा से | दी और उस स्थान का नाम कील्ली अर्थात कल्हणपर स्मरण करते हैं। | रख दिया। कई पीढियों बाद जब वहाँ किला बनवाने वे महाकवि थे, अपभ्रंश भाषा के श्रेष्ठ कवि की बात आई तो राजपुरोहित से भूमि-पूजन तथा स्थानविबुध श्रीधर। अपभ्रंश में रचना करनेवाले श्रीधर नाम | शुद्धि को कहा। राजपुरोहित ने पुनः उसी स्थान पर कील्ली के कई कवि हुए हैं। साहू नेमिचन्द्र के आग्रह, अनुनय- गाड़ी और कहा कि पाँच मुहूर्त तक इसे कोई न छेड़े। विनय और प्रार्थना पर अपभ्रंश में 'वड्ढमाण चरिउ' | जब तक यह कील्ली गडी रहेगी तोमर वंश अखण्ड की रचना करनेवाले कविश्रेष्ठ विबुध श्रीधर का समय | और चिरस्थायी बना रहेगा, इसे कोई भी परास्त न कर वि. सं. ११९० है। सकेगा। इतनी भविष्यवाणी कर राजपुरोहित चले गये। कवि विबुध श्रीधर ने छह काव्यों की रचना राजपुरोहित के जाते ही राजा अनंगपाल द्वितीय की- (१) 'पासणाहचरिउ' जो नट्टल साहू की प्रार्थना | ने जिज्ञासावश वह कील्ली तुरन्त उखाड़ दी जिससे पर की, (२) 'वड्ढमाणचरिउ' जो साहू नेमिचन्द्र की | वहाँ रक्त की धारा बह निकली, कील्ली का अग्रभाग प्रार्थना पर की, (३) 'सुकुमालचरिउ' जो पीथे साहू | भी रक्तरंजित था। जब पुरोहित को पता चला तो, वह के पुत्र कुमर की प्रार्थना पर की, (४) 'भविसयत्तकहा' | बड़ा दुःखी हुआ और उसने कहा- हे राजन्, इस कील्ली जो सुपट्ट साहू की प्रार्थना पर की, (५) 'संति-जिणेसर-के ढीली होने से तुम्हारा राज्य भी ढीला हो जाएगा। चरित' और (६) 'चंदप्पहचरिउ'। इनमें से अन्तिम दोनों| तब से यह स्थान दिल्ली के नास से प्रसिद्ध हुआ। रचनाएँ अप्राप्य हैं, अतः उनके विषय में कुछ भी | बाद में यह दिल्ली नाम में परिवर्तित हुआ। विभिन्न नहीं कहा जा सकता। विभिन्न भण्डारों में ढूँढने से | कालों में दिल्ली को विभिन्न नामों से ख्याति मिली। ये दोनों ग्रन्थ मिल सकते हैं। यथा- इन्द्रप्रस्थ, योगिनीपुर शाहजहानाबाद आदि-आदि कवि की उपर्युक्त रचनाएँ वि. सं. ११८९ से | लगभग १५-१६ नाम दिल्ली के इतिहास में विख्यात वि. सं. १२३० के मध्य की हैं। उन्होंने 'पासणाहचरिउ' | हैं। में दिल्ली का जो ऐतिहासिक वर्णन प्रस्तुत किया है, कवि विबुधश्रीधर, जब हरियाणा से चलकर दिल्ली वह तत्कालीन इतिहास का बहुमूल्य साक्ष्य एवं तथ्य | में अपने परम भक्त साहू अल्हण के घर ठहरे तो, है और सभी इतिहासकार इसे प्रामाणिक रूप में स्वीकार | उन्होंने बड़े आदर एवं भक्तिभाव से कवि का सत्कार करते हैं, जो सर्वथा निर्विवाद और सत्य है। कवि | किया। एक दिन साहू अल्हण ने तत्कालीन राजश्रेष्ठी हरियाणा के निवासी थे और अग्रवाल जैन थे। जब | प्रसिद्ध सार्थवाह साहू नट्टल की चर्चा की और उनसे वे यमुना पारकर दिल्ली आये, तब वहाँ अनंगपाल | भेंट करने को प्रेरित किया, पर कवि विबुध श्रीधर तोमर द्वितीय का राज्य था। दिल्ली को उस समय | ने सेठों के दुर्जन-भाव के कारण वहाँ जाने से इन्कार दिल्ली क्यों कहा जाता था, यहाँ इसकी थोड़ी-सी चर्चा | कर दिया। कर देना कुछ अप्रासंगिक न होगा। तब अल्हण साहू ने कविवर को विश्वास दिलाया 'पृथ्वीराज रासो' के अनुसार अनंगपाल के पूर्वज कि नट्टल साहू ऐसे सेठ नहीं हैं, वे बड़े धार्मिक और कल्हण राजा हस्तिनापुर में राज्य करते थे। एक बार | विद्वानों का आदर करनेवाले हैं। अतः आप एक बार 20 मई 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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