Book Title: Jinabhashita 2008 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ सेकेण्ड भी नहीं रह सकते। यह बात यद्यपि आबालवृद्ध । राजारामजी और मौजीलालजी की दुकान से चन्दन आ विदित है, फिर भी पर्याय के रखने के लिये मनुष्यों द्वारा बड़े-बड़े प्रयत्न किये जाते हैं। यह सब पर्यायबुद्धि का फल है। इसका भी मूलकारण वही है कि जो संसार बनाये हुए है। जिन्हें संसार मिटाना हो उन्हें इस पर विजय प्राप्त करना चाहिए । गया । श्रीयुत रामचरणलाल जी चौधरी भी आ गये। आपने भी कहा 'शीघ्रता करो।' हम लोगों ने १५ मिनट के बाद शव उठाया । उस समय रात्रि के दस बजे थे। बाईजी के स्वर्गवास का समाचार बिजली की तरह एकदम बाजार में फैल गया और श्मशान भूमि में पहुँचते पहुँचते बहुत बड़ी भीड़ हो गई । 'हेअभावे णियमा णाणिस्स आसवणिरोहो । आसवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि णिरोहो ॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायइ णिरोहो । णोकम्मणिरोहेण य संसारणिरोहणं होई ॥' संसार के कारण मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति और योग ये चार हैं। इनके अभाव में ज्ञानी जीव के आस्रव का अभाव होता है। जब आस्रवभाव का अभाव हो जाता है, तब ज्ञानावरणादि कर्मोंका अभाव हो जाता है और जब कर्मों का अभाव जाता है, तब नोकर्म शरीर का भी अभाव हो जाता है एवं जब औदारिकादि शरीरों का अभाव हो जाता है तब संसार का अभाव हो जाता है... इस तरह यह प्रक्रिया अनादि से हो रही है और जब तत्त्वज्ञान हो जाता है तब यह प्रक्रिया अपने आप लुप्त हो जाती है, स्वाभाविक प्रक्रिया होने लगती है। पर्यायक्षणभंगुर संसार में भी है और मुक्ति में भी है। बाईजी का शव देखकर मैं तो चित्रामका-सा पुतला हो गया। वर्णी जी ने कहा कि 'खड़े रहने का काम नहीं।' मैंने कहा - 'तो क्या रोने का काम है?' वर्णीजी बोले- 'तुमको तो चुहल सूझ रही है। अरे जल्दी करो और उनके शव का दाह आध घण्टे में कर दो, अन्यथा सम्मूर्छन त्रस जीवों की उत्पत्ति होने लगेगी।' मैं तो किंकर्तव्य के ऊहापोह में पागल था, परन्तु वर्णीजी के आदेशानुसार शीघ्र ही बाईजी की अर्थी बनाने में व्यस्त हो गया। इतने में ही श्रीमान् पं० मुन्नालालजी, श्री होतीलाल जी, पं० मूलचन्द्रजी आदि आ गये और सबका यह मंसूबा हुआ कि विमान बनाया जावे। मैंने कहा कि 'विमान बनाने की आवश्यकता नहीं।' शव को शीघ्र ही श्मशान भूमि में ले जाना अच्छा है। कटरा में श्रीयुत सिंघई, बाईजी का दाह संस्कार श्रीरामचरणलाल जी चौधरी के भाई ने किया । चिता धू-धू कर जलने लगी और आध घण्टे में शव जल कर खाक हो गया। मेरे चित्त में बहुत ही पश्चात्ताप हुआ । हृदय रोने को चाहता था, पर लोकलज्जा के कारण रो नहीं सकता था। जब वहाँ से सब लोग चलने को हुए, तब मैंने सब भाइयों से कहा कि - ' संसार में जो जन्मता है, उसका मरण अवश्य होता है। जिसका संयोग है उसका वियोग अवश्यंभावी है । मेरा बाईजी के साथ चालीस वर्ष से सम्बन्ध है। उन्होंने मुझे पुत्रवत् पाला । आज मेरी दशा माता विहीन पुत्रवत् हो गई है। किन्तु बाईजी के उपदेश के कारण मैं इतना दुःखी नहीं हूँ जितना कि पुत्र हो जाता उन्होंने मेरे लिये अपना सर्वस्व दे दिया। आज मैं जो कुछ उन्होंने मुझे दिया सबका त्याग करता हूँ और मेरा स्नेह बनारस विद्यालय से है, अतः कल ही बनारस भेज दूँगा। अब मैं उस द्रव्य में से पाव आना भी अपने खर्च में न लगाऊँगा।' श्री सिंघई कुन्दनलाल जी ने कहा कि 'अच्छा किया, चिन्ता की बात नहीं। मैं आपका हूँ। जो आपको आवश्यकता पड़े मेरे से पूरी करना । ' I इस तरह श्मशान से सरोवर पर आये । सब मनुष्यों ने स्नान कर अपने-अपने घर का मार्ग लिया। कई महाशय मुझे धर्मशाला में पहुँचा गये । यहाँ पर आते ही शान्ति, मुला और ललिता रुदन करने लगीं । पश्चात् शान्त हो गईं। मैं भी सो गया, परन्तु नींद नहीं आई, रह-रह कर बाईजी का स्मरण आने लगा । Jain Education International मेरी जीवन गाथा (भाग १ पृ. ४०७ - ४१६ ) से साभार आपन को न सराहिये, पर निन्दिये नहि कोय । चढ़ना लम्बा धौहरा, ना जानै क्या होय ॥ संत कबीर अर्थ- अपने आपको कभी मत सराहो ( अपनी प्रसंशा मत करो) और दूसरों की निंदा मत करो। क्योंकि अभी तुम्हें आचरण रूपी लम्बे (ऊँचे ) मीनार पर चढ़ना है, न जाने क्या हो ( न जाने सफल हों कि नहीं) । 16 मई 2008 जिनभाषित For Private & Personal Use Only 4 www.jainelibrary.org

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