Book Title: Jinabhashita 2008 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय अव्रतपूर्वक तप से निर्जरा कम, आस्रव अधिक आचार्य श्री वट्टकेर-कृत प्राचीन ग्रन्थ (प्रथम शताब्दी ई०) 'मूलाचार' में निम्नलिखित गाथा आयी सम्मादिट्ठिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि। होदि हु हत्थिण्हाणं चुंदच्छिदकम्म तं तस्स ॥ ९४२॥ अनुवाद- "जिसने व्रत धारण नहीं किये हैं, वह मनुष्य यदि सम्यग्दृष्टि है, तो भी उसका तप बहुत लाभदायक नहीं है, क्योंकि वह हस्तिस्नान और लकड़ी में छेद करनेवाले बरमा की रस्सी के समान होता है। टीकाकार आचार्य वसुनन्दी इस गाथा का अर्थ खोलते हुए लिखते हैं- "तिष्ठतु तावन्मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टेरप्यविरतस्यासंयतस्य न तपो महागुणः --- कर्म निर्मूलनं कर्तुमसमर्थं--- । कुतो? यस्माद् भवति हस्तिस्नानम्। 'ह' शब्द एवकारार्थः स च हस्तिस्नानेनाभिसम्बन्धनीयो हस्तिस्नानमेवेति। यथा हस्ती स्नातोऽपि न नैर्मल्यं वहति, पुनरपि करेणार्जितपांशुपटलेनात्मानं मलिनयति तद्वत्तपसा निर्जीणेऽपि कर्मांशे बहुतरादानं कर्मणोऽसंयममुखेनेति। दृष्टान्तान्तरमप्याचष्टे- चुंदच्छिदकर्म चुंदं काष्ठं छिनत्तीति चुंदच्छिद्रज्जुस्तस्याः कर्म क्रिया। यथा चुंदच्छिद्रज्जोरुद्वेष्टनं वेष्टनं च भवति तद्वत्तस्यासंयतस्य तत्तपः अथवा 'चुंदच्छुदगं व'- चुन्दच्युतकमिव मन्थनचर्मपालिकेव तत्संयमहीनं तपः। दृष्टान्तद्वयोपन्यासः किमर्थ इति चेन्नैष दोषः। अपगतात्मकर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः। आर्द्रतनुतया हि बहुतरमुपादत्ते रजः। बन्धरहिता निर्जरा स्वास्थ्यं प्रापयति, नेतरा बन्धसहभाविनीति। किमिदं? चुन्दच्छिदः कर्मेव-एकत्र वेष्टयत्यन्यत्रोद्वेष्टयति, तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिनं च करोतीति।" (मूलाचार / गाथा ९४२)। अनुवाद- “मिथ्यादृष्टि की तो बात ही दूर, सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत (असंयत) है, तो उसका तप भी अधिक गुणकारी नहीं है, क्योंकि वह कर्मनिर्मूलन में असमर्थ होता है। क्यों? इसलिए कि वह हस्तिस्नान है। 'हु' शब्द 'एव' अर्थ का वाचक है। वह हस्तिस्नान के साथ सम्बद्ध है, अतः 'अविरत का तप हस्तिस्नान ही है', यह अर्थ प्रतिपादित होता है। जैसे हाथी स्नान कर लेने रह पाता, अपनी सूंड से शरीर पर धूल डालकर पुनः स्वयं को मलिन कर लेता है, वैसे ही व्रतरहित सम्यग्दृष्टि भी तप के द्वारा निर्जरा तो थोड़े से कर्मों की करता है, किन्तु असंयम के द्वारा आस्रव बहुत से कर्मों का कर लेता है। दूसरा दृष्टान्त चुन्दच्छित्कर्म का दिया गया है। जैसे चुन्दच्छिद् अर्थात् बरमा (लकड़ी में छेद करने के लिए प्रयुक्त लोहे के औजार) की रस्सी खुलती और लिपटती है, असंयमी का तप वैसा ही होता है। अथवा 'चुन्दच्युतक' का अर्थ मथानी की रस्सी है। वह भी जिस प्रकार खुलती और लिपटती है, उसी प्रकार संयमहीन के तप से एक तरफ कर्मों की निर्जरा होती है, और दूसरी तरफ कर्मों का आस्रव होता है। दो दृष्टान्त क्यों दिये गये हैं? इसका समाधान यह है कि तप के द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा होती है, उससे अधिक आस्रव असंयम के निमित्त से होता है, यह प्रदर्शित करने के लिए हस्तिस्नान का दृष्टान्त दिया गया है, क्योंकि गीले शरीर पर धूल बहुत लिपटती है। और बन्धरहित निर्जरा ही मोक्ष प्राप्त कराती है, बन्ध-सहित निर्जरा नहीं, यह दिखलाने के लिए चुन्दछित्कर्म का दृष्टान्त उपन्यस्त किया गया है। निष्कर्ष यह कि व्रतरहित सम्यग्दृष्टि तप से जितने कर्मों की निर्जरा करता है, अविरतभाव से उससे अधिक कर्मों का बन्ध कर लेता है, अतः पहले व्रत ग्रहण करना चाहिए, तत्पश्चात् तप करना चाहिए।" - जनवरी 2008 जिनभाषित ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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