Book Title: Jinabhashita 2008 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ खिन्न होउँगी, अतः आप मुझे ही पुत्र समझिये । मेला । मासिक देना चाहिए। किन्तु जब राजदरबार में यह सुना गया कि वह तो धर्ममय जीवन विता रही है, तब राज्य से तहसीलदार को परवाना आया कि उसकी रक्षा की जावे, उसका धन उसी को दिया जावे और जो किसान न दे वह राज्य से वसूलकर उसको दिया जावे। इस प्रकार धन की रक्षा अनायास हो गई। इसके बाद मैंने सिमरा के मंदिर में सङ्गमर्मर की वेदी बनबाई और उसकी प्रतिष्ठा बड़े समारोह के साथ करवाई। दो हजार मनुष्यों का समारोह हुआ, तीन दिन पंक्ति भोजन हुआ। दूसरे वर्ष शिखर जी की यात्रा की । इस प्रकार आनन्द से धर्म ध्यान में समय बीतने लगा । एक चतुर्मास में श्रीयुत मोहनलाल क्षुल्लक का समागम रहा। प्रतिदिन दस या पन्द्रह यात्री आने लगे, यथाशक्ति उनका आदर करती थी। के लोग इस प्रकार मेरी बात सुनकर प्रसन्न हुए। पावागढ़ से गिरनार जी गये और वहाँ से जो तीर्थ मार्ग में मिले सबकी यात्रा करते हुए सिमरा आ गये। फिर क्या था ? सब कुटुम्बी आ आकर मुझे पतिवियोग दुःख का स्मरण कराने लगे। मैंने सबसे सान्त्वनापूर्वक निवेदन किया कि जो होना था सो तो हो गया। अब आप लोग उनका स्मरण कर व्यर्थ खिन्न मत हूजिये । खिन्नता का पात्र तो मैं हूँ, परन्तु मैंने तो यह विचारकर सन्तोषकर लिया कि परजन्म में जो कुछ पापकर्म मैंने किये थे यह उन्हीं का फल है । परमार्थ से मेरे पुण्यकर्म का उदय है। यदि उनका समागम रहता तो निरन्तर आयु विषय भोगों में जाती, अभक्ष्य भक्षण करती और दैवयोग से यदि सन्तान हो जाती तो निरन्तर उसके मोह में पर्याय बीत जाती । आत्मकल्याण से वञ्चित रहती, जिस संयम के अर्थ सत्समागम और मोह मन्द होने की आवश्यकता तथा सबसे कठिन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना है वह व्रत मेरे पति के वियोग से अनायास हो गया। जिस परिग्रह के त्याग के लिए अच्छे-अच्छे जीव तरसते हैं और मरते-मरते उससे विमुक्त नहीं हो पाते, पति के वियोग से वह व्रत मेरे सहज में हो गया। मैंन नियम लिया है कि जो सम्पत्ति मेरे पास है उससे अधिक नहीं रखूँगी तथा यह भी नियम किया कि मेरे पति की जो पचास हजार रुपया की साहुकारी है उसमें सौ रुपया तक जिन किसानों के ऊपर है वह सब मैं छोड़ती हूँ तथा सौ रुपया से आगे जिनके ऊपर है उनका ब्याज छोड़ती हूँ। वे अपनी रकम बिना ब्याज के अदा कर सकते हैं। आज से एक नियम यह भी लेती हूँ कि जो कुछ रुपया किसानों से आवेगा उसे संग्रह न करूँगी, धर्मकार्य और भोजन में व्यय कर दूँगी। आप लोगों से मेरी सादर प्रार्थना है कि आज से यदि आप लोग मेरे यहाँ आवें तो दोपहर बाद आवें, प्रातः काल का समय मैं धर्म कार्य में लगाऊँगी। कृषक महाशय मेरी इस प्रवृत्ति से बहुत प्रसन्न हुए । इधर राज्य में यह वार्ता फैल गई कि सिमरावाली सिंघैन का पति गुजर गया है, अतः उसका धन राज्य में लेना चाहिये और उसकी परवरिश लिये तीस रुपया Jain Education International इसी बीच में श्री गणेशप्रसाद मास्टर जतारा से आया । उसके साथ में पं० कड़ोरेलाल भायजी तथा पं० मोतीलाल जी वर्णी भी थे। उस समय गणेशप्रसाद की उमर बीस वर्ष की होगी । उसको देखकर मेरा उसमें पुत्रवत् स्नेह हो गया। मेरे स्तन से दुग्धधारा वह निकली। मुझे आश्चर्य हुआ, ऐसा लगने लगा मानो जन्मान्तर का यह मेरा पुत्र ही है। उस दिन से मैं उसे पुत्रवत् पालने लगी । वह अत्यन्त सरल प्रकृति का था। मैंने उसी दिन दृढ़ संकल्पकर लिया कि जो कुछ मेरे पास है, वह सब इसी का है और अपने उस संकल्प के अनुसार मैंने उसका पालन किया। उसने छाँछ माँगी, मैंने रबड़ी दी । यद्यपि इसकी प्रकृति सरल थी तो भी बीच में इसे क्रोध आ जाता था, परन्तु मैं सहन करती गई, क्योंकि एक बार इसे पुत्रवत् मान चुकी थी । एक दिन की बात है कि मैं आँख कमजोर होने उसमें मोती का अंजन लगा रही थी । गणेशप्रसाद कहा- 'माँ! मैं भी लगाता हूँ।' मैंने कहा- 'बेटा तेरे योग्य नहीं ।' परन्तु वह नहीं माना। लगाने से उसकी आँख में कुछ पीड़ा देने लगा, आँख आँसुओं से भर गई और गुस्से में आकर उसने शीशी फोड़ डाली, सोलह रुपया की नुकसान हुआ । मैंने कहा- 'बेटा! नुकसान किसका हुआ ? फिर दूसरी शीशी मंगाओ । ' एक बात इसमें सबसे उत्तम यह थी कि दुःखी जनवरी 2008 जिनभाषित से ने For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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