Book Title: Jinabhashita 2008 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ दार्शनिक शैली के ग्रंथकार जैन आचार्यों की श्रृंखला । कुन्दकुन्दाचार्य के ही उक्त तीन ग्रंथों पर जयसेनाचार्य में पात्र केसरीआचार्य का नाम भी प्रसिद्ध है। वे उच्चकोटि | ने तात्पर्यवृत्ति आदि टीकाएं निर्मित कर कुन्द कुन्द और के विद्वान्-आचार्य थे उन्होंने पात्रकेसरी स्तोत्र, त्रिलक्षणकदर्शन | अमृतचन्द्र आचार्य के मन्तव्यों को एवं विषय प्रतिपादन आदि ग्रंथों की रचनाकर जिनधर्म के उद्योत में अपना | को समझने में सुविधा प्रदान की है। अपूर्व योगदान दिया है। ___आचार्य सोमदेवसूरि का यशस्तिलकचम्पू और आचार्य अकलंकदेव भी अद्वितीय प्रतिभा के धनी | नीतिवाक्यामृत तथा वादीभसूरिका, छत्रचूड़ामणि एवं गद्य महान् आचार्य हुए हैं उनकी विद्वत्ता भी नामानुसार अकलंक | चिंतामणि काव्यग्रंथ भी जैनजगत की अनुपम निधियाँ ही थी। इनके समय में बौद्धदर्शन का बहुत जोर था, | हैं। इसी प्रकार देवसेनाचार्य, माणिक्यनंदि, शुभचन्द्राचार्य अत. अन्य दर्शनों की अपेक्षा बौददर्शन की विशेष समीक्षा | आदि अनेक उदभट विद्वान तपस्वी आचार्य हए हैं जिन्होंने आपके ग्रंथों में पायी जाती है। दर्शनिक प्रधान आपकी | चारों अनुयोगों पर महान् विद्वत्तापूर्ण रचनाएं कर जिनवाणी रचनाएं स्वतंत्र और टीकाग्रंथों के रूप में जैनसाहित्य की | के रहस्य को खोलने में और संसार में उसका दिव्यअनुपम निधियां है। तत्त्वार्थवार्तिक तत्त्वार्थसूत्र की टीका | प्रकाश फैलाने में बड़ाभारी श्रम किया है। है। अष्टशती देवागमस्तोत्र की टीका है। इसके अतिरिक्त | सचमुच में यदि इन उपकारकबुद्धि आचार्यों ने अकलंकस्तोत्र, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय | संसार के कल्याणार्थ अपने तपस्वी जीवन का बहुमूल्य और प्रमाणसंग्रह आदि स्वंतत्र रचनारूप में प्रमुखग्रंथ हैं। | समय जिनवाणी के रहस्योद्घाटन में न दिया होता तो जिनसेनाचार्य की प्रतिभा और विद्वत्ता तो अवर्णनीय | संसार धर्म और वास्तविक स्वरूप को जानने में अज्ञात थी। उनका बनाया हुआ प्रथमानुयोग का महान् पुराणग्रंथ | रहता। दिगम्बर जैन जगत के सभी महान् आचार्य जिनवाणी महापुराण काव्यग्रंथों में जैनसाहित्य की ही नहीं, संसार | के सच्चे सपूत कहे जा सकते हैं जिन्होंने जिनवाणी की की समस्त साहित्यकृतियों में एक महान् रचना है। लगभग जन्मभर सेवा की और जिनवाणी को विकास में लाकर ४० हजार श्लोक प्रमाण आपकी जयधवलाटीका का उल्लेख समीचीन धर्म का प्रकाश संसार को दिया। धन्य हैं वे मैं पहले ही कर आया हूँ। इसके अतिरिक्त पार्वाभ्युदय | आचार्य और धन्य हैं उनकी बहुमूल्य साहित्यकृतियां जिन काव्य भी काव्य संसार में एक श्रेष्ठ कृति है। | पर भगवान् महावीर का अनुयायी जैन समाज गौरवान्वित जिनसेनाचार्य के ही विद्वान् शिष्य गुणभद्राचार्य ने उत्तर पुराण रचकर भगवान् ऋषभदेव और भरतचक्रवर्ती दिगम्बर जैनाचार्यों ने जैसे रत्नत्रयधर्म के विभिन्न को छोड़ समस्त शलाका पुरुषों का जीवन चरित्र आठ | अंगों पर अपनी रचनाएँ की वैसे ही आयुर्वेद, छंद, हजार श्लोकों में निबद्ध किया है। इसके अतिरिक्त अलंकार, व्याकरण, मंत्र, यंत्र, काव्य आदि विभिन्न विषयों आत्मानुशासन भी आपकी अनुपम रचना है। जिनदत्तचरित्र | पर भी, जो द्वादशांग के ही भाग हैं, प्रकाश डाला है। भी आपकी ही रचना माना जाता है। उग्रदित्याचार्य का आयुर्वेदसंबंधी कल्याणकारकग्रंथ और श्री नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती के द्वारा रचित | श्री मानतुंगाचार्य, कुमुदचन्द्राचार्य, वादिराजसूरि के काव्य करणानुयोग प्रधान ग्रंथ है। जो करणानुयोग का प्रसिद्ध । भी भक्तिरस की बहुमूल्यकृतियां हैं। जिनागम की ये ग्रंथ है। षट्खडागम के आधार पर गोम्मटसार (जीवकाण्ड बहुमूल्यकृतियां अब देश-विदेशों में भी विश्वविद्यालयों व कर्मकाण्ड) लब्धिसार-क्षपणासार का प्रणयन किया | में पढ़ाई जाने लगी हैं। संसार के विचारशील विद्वान ॥ त्रिलोक का वर्णन करनेवाला त्रिलोकसारग्रंथ भी आपने | और छात्र जिनवाणी के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकांत किया है। आपकी इन रचनाओं से जैनजगत | जैसे तत्वों के यथार्थ स्वरूप को हृदयंगम करते हैं तो का महान् उपकार हुआ है। उनको सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने का आनन्द होता है। अमृतचन्द्राचार्य कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा विरचित समय- आज आवश्यकता इस बात की है कि जिनवाणी सारादिग्रंथों के विशेष टीकाकार आचार्य हुए हैं। समयसार, | के इन लोक कल्याणकारी चतुरनुयोग के ग्रंथों को विभिन्न प्रवचनसार व पंचास्तिकायग्रंथों पर आत्मख्याति आदि | भाषाओं में अनुदित कर उनको प्रचार में लाने की योजना टीकाओं का प्रणयन आपने किया। आपने स्वतंत्ररूप से | पर विचार किया जावे। तत्त्वार्थसार और पुरुषार्थसिद्धयुपायग्रंथ का निर्माण भी किया । सम्पादक : जैनदर्शन, नांदगाँव है। है। जनवरी 2008 जिनभाषित १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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