Book Title: Jinabhashita 2008 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ भाग में त्रि-छत्र बना । इन्होंने सुन्दर धोती धारण कर रखी है जिससे स्पष्ट है कि उसकी प्रतिष्ठापना श्वेताम्बर सम्प्रदाय के जैनियों द्वारा की गयी थी। पीठिकापर बने वृषभ के अतिरिक्त उनके चरणों के पास दानकर्त्ता एवं उनकी पत्नी तथा अन्य उपासकों की लघु मूर्तियों बनी हैं। कला की दृष्टि से यह मूर्ति परमार काल, लगभग बारहवीं सदीकी बनी प्रतीत होती है। साथियों सहित उनपर आक्रमण करता दिखाया गया है। जैन साहित्य से ज्ञात होता है कि जब पार्श्वनाथ अपनी घोर तपस्या में लीन थे, तब दुराचारी कमठ ने अनेक विघ्न-बाधायें डालीं जिससे वे तपस्या न कर सकें और उसने उन पर घोर वर्षा की, पाषाण शिलाओं से प्रहार किया तथा अनेक जंगली जंतुओं से भय दिलाने का भरसक प्रयत्न किया। परन्तु इतना सब सहते हुये पार्श्वनाथ अपने पुनीत कार्य से जरा भी विचलित नहीं हुए और अपनी तपस्या पूर्ण कर ज्ञान प्राप्त करने में सफल रहे । परिणाम स्वरूप कमठ को लज्जित होकर उनसे क्षमा माँगनी पड़ी। प्रस्तुत मूर्ति में सम्पूर्ण दृश्यको बड़ी सजीवता से दर्शाया गया । यद्यपि इस आशय की अन्य प्रस्तर प्रतिमाएँ भारत के अन्य कई भागों से भी प्राप्त हुई हैं, परन्तु फिर भी यह मूर्ति अपनी प्रकार का एक अद्वितीय उदाहरण है। ब- बोस्टन कला संग्रहालय, बोस्टन, मैसाचुसैहस - म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, म्यूनिक : इस संग्रहालय में यक्षी अम्बिका की एक अत्यन्त भव्य प्रतिमा प्रदर्शित है जिसे पट्टिका पर दुर्गा बताया गया है। मध्यप्रदेश में प्राप्त लगभग अठारहवीं सदी की इस मूर्ति में देवी अपने आसनपर ललितासन में विराजमान है । इसके दाहिने हाथ में गुच्छा था, जो अब टूट गया है । और दूसरे हाथ से वह अपने पुत्र प्रियंकर को गोदी में पकड़े हुए है। इसका दूसरा पुत्र पैरों के समीप खड़ा है। देवी के शीश के पीछे बने प्रभामण्डल की दाहिनी ओर गजारुढ़ इन्द्राणी और बाईं ओर गरुडारूढ़ चक्रेश्वरी की मूर्तियाँ हैं, जिनके मध्य ऊपरी भाग में भगवान् नेमिनाथ की ध्यान मुद्रा में लघु मूर्ति उत्कीर्ण । मूर्ति के नीचे के भाग में कई उपासक बैठे हैं जिनके हाथ अंजलीमुद्रा में दिखायें गये हैं । इस संग्रहालय में मध्य प्रदेश से प्राप्त जैन मूर्तियों काफी अच्छा संग्रह है। इनमें अधिकतर तो प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्तियाँ हैं, जिनमें से कुछ में वह ध्यान मुद्रा में तथा कुछ में कार्योत्सर्ग-मुद्रा में दर्शाये गये हैं। उन प्रतिमाओं के अतिरिक्त यहाँ एक अत्यन्त कलात्मक तीर्थंकर वक्ष भी है, जिसे संग्रहालय की पट्टिका में महावीर बताया गया हैं। परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तुत मूर्ति में केश ऊपर को बँधे हैं और जटाएँ दोनों ओर कंधों पर लटक रही हैं। इससे प्रतिमा के आदिनाथ होने की ही सम्भावना प्रतीत होती है। इनके शीश के दोनों और बादलोंमें उड़ते हुए आकाशचारी गन्धर्व और 'त्रिछत्र' के ऊपर आदिनाथ की ज्ञान प्राप्ति की घोषणा करता हुआ एक दिव्य - वादक बना हुआ है। यह सुन्दर मूर्ति दसवीं सदीकी बनी प्रतीत होती है। स- फिलाडेल्फिया कला संग्रहालय, फिलाडेल्फिया इस संग्रहालय सबसे उल्लेखनीय जैन मूर्तियाँ ८. अमेरिका : अ- क्लीवलैण्ड कला संग्रहालय, जबलपुर क्षेत्र से प्राप्त कल्चुरिकालीन दसवीं सदी की हैं। इनमें से एक भगवान् महावीर की है, जिसमें उन्हें कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है। द्वितीय प्रतिमा में पार्श्वनाथ तथा नेमिनाथ को खड़े दिखाया गया है। पार्श्वनाथ की पहचान उनके शीश के ऊपर बने सर्फ फणों से तथा नेमिनाथ की पहचान पीठिका पर उत्कीर्ण शंख से ७. जर्मनी : अ- म्यूजियम फर वोल्कुर कुण्डे, बर्लिन इस संग्रहालय में मथुरा क्षेत्र में प्राप्त कुषाणकाल (२-३ सदी) के कई जिन शीर्ष विद्यमान हैं। इस प्रकार के कई अन्य शीर्ष स्थानीय राजकीय संग्रहालय में भी देखने को मिलते हैं। उपर्युक्त मूर्तियों के अतिरिक्त दक्षिण भारत में मध्यकाल में निर्मित कई जैन प्रतिमायें भी यहाँ पर प्रदर्शित हैं। इन सभी मूर्तियों में जिनको कार्योत्सर्ग मुद्रा में नग्न खड़े दिखाया गया है। इनके पैरों के समीप प्रत्येक तीर्थंकर के सेवकों तथा उपासकों को लघु मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई मिलती हैं । क्लीवलैण्ड, ओहायो इस संग्रहालय में प्रदर्शित जैन मूर्तियों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मूर्ति पार्श्वनाथ की है जिसका निर्माण मालवा क्षेत्र में लगभग दसवीं सदी में हुआ था । लगभग आदमकद इस मूर्ति में पार्श्वनाथ सर्प के साथ फणों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हैं और कमठ अपने । की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only जनवरी 2008 जिनभाषित 12 www.jainelibrary.org

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