Book Title: Jinabhashita 2008 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ है। (२) स्वद्रव्य हिंसा अंग को, शरीर को कष्ट देना, । दुराग्रह होता है । इस्राइल, वियतनाम आदि की समस्याएँ आत्मघात करना। (३) परभाव हिंसा - कुवचन बोलकर, इसका उदाहरण मानी जा सकती हैं। महावीर ने दुराग्रहों दूसरों के अन्तरंग को पीड़ा पहुँचाना। (४) परद्रव्य हिंसा- को समाप्त करने के लिये एक उदार दृष्टिकोण दियादूसरे का आघात पहुँचाना, प्राणों का हनन करना । हिंसा 'अनेकान्तवाद' । इस दृष्टि से वैचारिक सहिष्णुता का के इन सभी प्रकारों रूपों का विनाश जैनधर्म का प्रमुख उदय होता है, किसी प्रकार का विचारद्वन्द्व नहीं रहता लक्ष्य है। भारत यों भी अहिंसा में विश्वास करता रहा क्योंकि यह अनेक मतों धर्मों को सामने रखता है, किसी है, परन्तु जैनधर्म में प्रतिपादित अहिंसा अधिक व्यापक एक के प्रति आग्रही नहीं होता। यदि इस वैचारिक सहिष्णुता है, बहुआयामी है। यहाँ वचनों से भी यदि किसी के के आलोक में प्रवेश करें तो सभी प्रकार का तिमिर हृदय को ठेस पहुंचती है तो उसी का निषेध है, किसी दूर हो सकता है, संसार को शांति का आलोक मिल की भावना को धक्का लगता है तो वह हिंसा भी त्याज्य सकता है। है । ऐसी व्यापक अहिंसा को आचरण के सांचे में ढाला जाये तो मनुष्य के व्यक्तित्व को दूसरा रूप क्यों न प्राप्त होगा। संसार का यह विषमताजन्य वातावरण क्यों न समतामय बनेगा, क्यों न यहाँ एकता की भावना पारवान चढ़ेगी। देखने में आता है कि सशस्त्रीकरण की होड़ लगी है, प्रत्येक देश सैनिक शक्ति जुटाने में लगा है, करोड़ों रु० गोलाबारूद, घातक अस्त्र, अणुबम आदि बनाने में पानी की तरह बहाया जा रहा है। यदि सब देश ठण्डे मन से जैनधर्म की अहिंसा पर विचार करें और उसे अपने जीवन में ढालें, उस पर अमल करें तो विश्व में अशांति के और शीत युद्ध के बादल शीघ्र छट सकते हैं। हम कहते हैं कि प्रदूषण पर्यावरण में है, कभी जल पर्यावरण की बात कही जाती है, कभी वायु के प्रदूषण की चर्चा की जाती है, यह सब तो है ही और इसका जिम्मेदार भी मनुष्य है, उसकी स्वार्थबद्ध दृष्टि है। बागों, उपवनों, वनों का कटाव कितना घातक सिद्ध हुआ है यह किसी से छिपा नहीं, तभी मनुष्य को कुछ होश आया और उसने वृक्षारोपण या वन महोत्सव का कार्य शुरू किया। परन्तु इससे कहीं घातक है विचारों का प्रदूषण। विचारों में प्रदूषण के कारण हम दूसरों की निन्दा करते हैं, उनकी अवमानना करते हैं। यदि जैनधर्म के अनेकान्तवाद पर दृष्टि डाली जाये तो यहाँ सभी प्रकार का विचार - वैभिन्नय समाप्त हो जाता । यह एक अनाग्रही दृष्टिकोण है। इसमें दुराग्रह या हठधर्मी के लिये कोई स्थान नहीं। जहाँ दुराग्रह होगा वहीं संघर्ष और द्वन्द्व का घोर गर्जन सुनाई पड़ेगा। जब भी कोई विकट समस्या उत्पन्न होती है तो उसकी प्रमुख कारण हठधर्मी ओर Jain Education International भय का वातावरण दूर करने के लिये जैनधर्म की, भगवान् महावीर की शरण में आना पड़ता है। महावीर तो निर्भय होकर वनों, पर्वतों, उपत्यकाओं में घूमते फिरे । हिंस्र पशुओं, बटमारों से भी उन्होंने मैत्री की, अहिंसापूर्ण व्यवहार किया, वह किसी से भी नहीं डरते थे। आज हम घर के बाहर ही नहीं, घर में भी डरते हैं, स्त्रियों का इधर-उधर आना-जाना खतरे से खाली नहीं । सारा समाज हिंसा के अभिशाप में जकड़ा है, चारों ओर अशांति है, लूटमार है, बलात्कार और व्यभिचार है । इसके पीछे कारण है अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य और अस्तेय का अभाव । स्मगलिंग का सामन धड़ाधड इधर-उधर पहुँचता है, दिन दाहड़े घरों को लूटा जाता है, हत्याएँ भी धन लूटने के लिये की जाती हैं। धन लिप्सा न जाने कैसे-कैसे अपराध कराती है? यदि जैनधर्म के उक्त महान् व्रतों को जीवन में उतारें, तो संसार का आर्थिक संघर्ष नष्ट हो सकता है, वस्तुओं के मूल्य भी निश्चित रूप में घट सकते हैं । अपरिग्रह में धन बटोरने या धन-संग्रह करने के लिये लूट-खसोट नहीं की जाती। यहाँ दूसरों को निर्धन बनाकर, उनके अभाव की उपेक्षा करके हम वैभवपूर्ण जीवन बिताते हैं, फिर शांति कैसे हो? समाज में, विश्व में शांति स्थापित करने के लिये अपरिग्रहवाद के राजमार्ग पर चलना होगा और परिग्रह की अंधकारपूर्ण, भ्रमित करने वाली, अशांति की ओर ले जाने वाली संकीर्ण पगडंडियों को छोड़ना होगा। जैनधर्म के सिद्धांत निश्चित रूप से संसार में शांति स्थापित करने में कारगर साबित होंगे, जरूरत केवल उन्हें पढ़ने या देखने की नहीं, जीवन व्यवहार में उतारने की है 'आचार्य श्री धर्मसागर अभिनन्दनग्रन्थ' से साभार 1 जनवरी 2008 जिनभाषित 19 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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