Book Title: Jinabhashita 2008 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 20
________________ जैनधर्म : विश्व शांति में सहायक डॉ० निजाम उद्दीन 'महाभारत' में वर्णित 'वन-पर्व' के यक्ष-प्रश्न- | भूएसु कप्पए।' (उत्तरा० ६/२) अर्थात् सब जीवों के प्रसंग में पूछा गया कि “दिशा कौन सी है?" और इसके | प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए। जब मैत्री इतनी व्यापक उत्तर में कहा गया कि 'संत ही दिशा हैं' (सन्तो दिक्)। हो तो शत्रुता कहाँ रहेगी, किसके साथ वैर होगा? हम आज जब हम भगवान् महावीर के जीवन और उपदेशों | देखते हैं कि एक देश से दूसरे देश में मैत्री-सम्बन्ध को देखते हैं तो मालूम होता है कि भारत ही नहीं, | रखने के लिए, मैत्री बढ़ाने के लिए राजदूत को भेजा वरन् विश्व की सुख-शांति के लिए वे अनुकरणीय हैं। | जाता है, दूतावास-स्तर पर सम्बंध गाढ़े व गहरे बनाये उनकी अहिंसा, अनेकान्त दृष्टि और अपरिग्रह की भावना | जाते हैं, जब कभी परस्पर किसी बात पर मतभेद होता हमारे लिए आज भी प्रासंगिक हैं। उनका 'जियो और | है। तो ये देश इसी दूतावास-स्तर पर वार्ता द्वारा उसे जीने दो' का सिद्धान्त किसे उपादेय नहीं लगता? महावीर | दूर कर लेते हैं। भारत के अपने पड़ोसी देशों के साथ का लोकधर्म, व्यक्ति-विकास की पूर्ण प्रतिष्ठा हमारे यूग | जब कभी कोई मत-भेद होता है तो उसे मैत्री भाव के परिवेश में बंधी हुई है। उनकी वाणी की सहज | से मैत्रीपूर्ण वातावरण में दूर कर लिया जाता है। यदि उद्भूति 'उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्' में द्रव्य की जो | इसी प्रकार की मैत्री को बनाये रखा जाये, एक सम्मानजन्य परिभाषा अभिव्यंजित है वह वैज्ञानिकों के परीक्षण- | और समताजन्य वातावरण हमेशा कायम रखें तो कोई अन्वीक्षण द्वारा मान्यता प्राप्त कर चुकी है। भगवान् महावीर बात नहीं कि संसार के सभी देशों में शांतिपूर्ण सम्बंधों ने अपने भेद-विज्ञान के दर्शन में जड़-चेतन की सम्पूर्णता | | का विकास हो, उन्हें मजबूती मिले। आचार्य उमास्वामी का जो अति सूक्ष्म ज्ञान दिया, आज विज्ञान उसी की | ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (५/२१) में कहा है- 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' ओर अग्रसर है। उनका अनेकान्तवाद का सिद्धांत | अर्थात् जीवों का परस्पर उपकार। जैनदर्शन का यह सूत्र 'सर्वधर्मसमभाव' (अर्थात् द्रव्यों में पाये जाने वाले अनन्त | सकल संसार को शांति एवं सह-अस्तित्व की प्रेरणा धर्मों के समन्वय) का प्रतीक है और बदलते युग के | देता है। मैत्री, उपकार या सह-अस्तित्व के आदर्श खोखले संदर्भो में उसकी उपादेयता और बढ़ गई है। वर्तमानयुग | या अव्यावहारिक नहीं हैं, इनकी व्यवहारिकता असंदिग्ध के परिप्रेक्ष्य में यदि भगवान् महावीर की जीवन-दृष्टि, | है। राजनीतिक स्तर पर राष्ट्रसंघ की स्थापना (१९४५) उनका अहिंसा-दर्शन से, हम अपनी सामाजिक, आर्थिक, | का प्रमुख उद्देश्य यही था। पण्डित जवाहरलाल नेहरू राजनीतिक समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं। ने वाण्डुंग-सम्मेलन (१९५४) में सह अस्तित्व (Coयह माना कि महावीर के युग और हमारे युग के बीच | existence) की बात कहकर जो पंचशील के सिद्धान्त तीन हजार वर्षों का लम्बा फासला है, परन्तु उनके सिद्धान्त | स्थापित किये थे उनके पीछे क्या जैनधर्म की अहिंसा, उतने ही अधिक निकट हैं, उतने ही अधिक उपयोगी मैत्री या 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' का आदर्श काम नहीं हैं जितने तद्युगीन थे अतः महावीर की प्रासंगिकता पर | कर रहा था? गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के कर्णधारों-पं० जवाहरलाल प्रश्न-चिन्ह नहीं लगाया जा सकता और नि:संदेह विश्व- | नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति कर्नल नासिर, यूगोसलावाकिया शांति के लिए वह आज भी पथदर्शक हैं। के राष्ट्रपति मार्शल टीटो ने मैत्री और सह-अस्तित्व को अहिंसा का दर्शन महावीर के महावीरत्व का | बढ़ावा देने के लिए इस गुट को स्थापित किया था। उद्घोषक हैं। अहिंसा की भावना का प्रचार-प्रसार महावीर | और हम देखते हैं कि भारत की यह गुट-निरपेक्ष नीति से पूर्व भी तीर्थंकरों और ऋषि-मुनियों ने किया, परन्तु बहुत सफल है- इसका आधार समानता के स्तर पर महावीर ने उसमें अधिक व्यापकता भरी। उनका प्राणी- | मैत्रीभाव हैं। तंत्र का यह दर्शन मनुष्य के साथ असंख्य पशु-पक्षी | जैनधर्म में हिंसा चार प्रकार की मानी जाती हैऔर कीड़े-मकोड़ों तक फैला हुआ है। उन्होंने कहा 'मेत्ति । (१) स्वभाव हिंसा-जो क्रोधादि कषायों से उत्पन्न होती -जनवरी 2008 जिनभाषित 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36