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कि जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे भय, आशा, स्नेह अथवा | रक्षकदेव क्या अपनी रक्षा भी कर सके हैं। यदि नहीं लोभ से (18 दोष युक्त) कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओं | तो उनके नाम के निरर्थक गीत क्यों गाये जा रहे हैं? को प्रणाम और विनय नहीं करते। श्लोक 4 आप्त- विचारणीय है। आगम-गुरुओं की श्रद्धान का निर्देश करता है और श्लोक शासन देवता रक्षक हैं या नहीं इसका उत्तर मेरे 30 कुदेव कुशास्त्र-कुगुरुओं की श्रद्धा-विनय का निषेध जैसा सामान्य बुद्धि का अल्पज्ञ व्यक्ति नहीं दे सकता! करता है। यहाँ देव-कुदेव का वर्गीकरण राग-द्वेष आदि | विशिष्ट विद्वानों की शरण लेना ही इष्ट है। 'महाजनो 18 दोषों के आधार पर किया है, न कि सम्यक्त्व या । येन गतः स पन्था।' मिथ्यात्व के आधार पर। स्पष्ट है कि सम्यक्त्वधारी रागी- | आदरणीय श्री जगन्मोहनलाल जी शास्त्री, कटनी द्वेषी देवपर्याय का देव पूज्य नहीं है। मोक्ष की प्राप्ति | अपनी निष्पक्षता, सहिष्णुता और विद्वत्ता के लिए प्रसिद्ध हेतु इनकी पूजा नहीं होती। अतः भय, आशा आदि की थे। 'जैनसन्देश' दिनांक 5.4.1990 के पृष्ठ 4-5 में उनका चर्चा की है। असंयमी अपूज्य हैं, यह कथन भी प्रथमदृष्ट्या आलेख 'ये जिनशासन देव हैं या मिथ्याशासन देव' उक्त तथ्य की पुष्टि करता है।
प्रकाशित हुआ था, जो पठनीय है। आलेख का प्रसंग स्वामी समन्तभद्र ने वैय्यावृत्य नामक शिक्षाव्रत था सम्मेदशिखर जी का नवनिर्मित 'समवशरण मंदिर'। के वर्णन में जिनेन्द्रपूजन को समाहित करते हुए 'देवाधिदेव' इस मंदिर के बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे सैकडों सरागी शब्द से अरहंत भगवान् को सम्बोधित किया है। यहाँ देवी-देवताओं का साम्राज्य है। भगवान् एक फुट के देवाधिदेव शब्द आप्त का ही विशेषण है जिसका अर्थ | तो सरागी देवता चार-चार फुट के। पंडित जी ने वीतरागी है कि अरहंत भगवान् देवों के स्वामी इन्द्रादिक द्वारा | जैन मंदिर में देवी-देवताओं की स्थापन के विरुद्ध तर्क पूज्य हैं। समग्र दृष्टि से जो अठारह दोष रहित आप्त | देते हुए लिखा कि "किसी कृष्ण मंदिर में राम की है वह देव देवाधिदेव, परमदेव आदिनामों से पूज्य है। मूर्ति नहीं है, पर यहाँ वीतराग के मंदिर में सरागी देवों इन शब्दों से यह ध्वनित नहीं होता, कि देव और देवाधिदेव | की मूर्तियाँ सैकड़ों स्थापित हैं। उनका औचत्य कैसे पृथक-पृथक सत्ताएँ हैं। ये आप्त के ही पर्यायवाची शब्द स्वीकार किया जा सकता है?" ये मूर्तियाँ समवशरण
जैसी भक्ति की मुद्रा में नहीं हैं। परन्तु ये देवी-देवता भरत चक्रवर्ती के सोलह स्वप्नों में सातवाँ स्वप्न | अपनी-अपनी मुद्रा में पूरे मंदिर में छाये हैं, अतः इनका था- आनंद करते भत! इसका फलितार्थ है- व्यंतर देवों | औचित्य नहीं है। पण्डित जी आगे लिखते हैं कि "धर्म की पजा होना। व्यंतर देवों की पूजा के समर्थक महानभाव के स्थान पर अधर्म के बैठ जाने से धर्म का स्थान तर्क देते हैं। कि ये देव शासनरक्षक देव हैं, अतः ये| छिन जाता है, अतः उचित नहीं है। वीतराग के मंदिरों भी पूज्य हैं। उनका मानना है, कि ये देवालय के द्वारपाल | को वीतराग का ही मंदिर रहने दिया जाता और उन नहीं किन्तु जिनेन्द्र देव के सम्पूर्ण शासन के अधिकृत | सरागी देवताओं का स्थान सरागियों के ही मन्दिर में, रक्षक देव हैं, जो मंत्री व सेनापति की भूमिका का निर्वाह | तो वीतरागियों को धोखा न होता। वीतराग मंदिर में सरागी करते हैं। यदि यह कथन सत्य होता, तो जैन-संस्कृति | मूर्ति रखकर उन्हें वीतरागमंदिर कहना धोखा है।" आदि।
और जैन-समाज का विद्वेषियों द्वारा जो विनाश हुआ, पण्डित जी आगे लिखते हैं कि "इन सरागी देवीविघ्न-उपद्रव हुए, वे कभी नहीं होते। यहाँ तक कि | देवताओं की उपासना कोई-कोई दिगम्बर जैन पण्डित जिनेश्वरी दीक्षा के कवच में जो अशोभनीय कृत्य हुए भी करते हैं। पंडित बुद्धजीवी हैं उनमें तर्क-वितर्कया हो रहे हैं वे कभी नहीं होते। मंदिरों का विनाश | कुतर्क करने की क्षमता है। वे कहते हैं कि राजा के होकर मस्जिदें नहीं बनती। तीर्थों का विनाश और अपहरण | साथ राजा के सेवक भी आते हैं, उनका भी आदर नहीं होता। साधु भगवंत कोल्हू में नहीं पेले जाते। निश्चित करना होता है।' उनका यह तर्क धोखा है, कुतर्क है। ही यह तब होता है जब उनका कोई रक्षक नहीं होता | राजा तो रागी-द्वेषी होता है, भय से राजकर्मचारी को या रक्षक बलहीन होता है। इसका निर्णय गम्भीरता से | सम्मान रुपया-पैसा भेंट दी जाती है। इसी प्रकार क्या करना आवश्यक है। यह भी निर्णय करना है कि ये | तीर्थंकर प्रभु राजा की तरह पूजा प्रतिष्ठा के लोभी हैं?
- जनवरी 2008 जिनभाषित 15
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