Book Title: Jinabhashita 2008 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ आदमी को देखकर उसके उपकार की चेष्टा करने में | में मैंने कभी कुदेव का सेवन नहीं किया। केवल इस नहीं चुकता था। यदि इसके पहिनने का भी वस्त्र होता | बालक के साथ मेरा स्नेह हो गया। सो उसमें भी मेरा और किसी को आवश्यकता होती तो यह दे देता था। | यही अभिप्राय रहा कि यह मनुष्य हो जावे और इसके एक बार यह शिखरजी में प्रात:काल शौचादि क्रिया को | द्वारा जीवों का कल्याण हो। मेरा भाव यह कभी नहीं गया था, मार्ग में एक बुढ़िया ठण्ड से कप रही थी। | रहा कि वृद्धावस्था में यह मेरी सेवा करेगा। अस्तु, मेरा यह जो चद्दर ओढ़े था उसे दे आया और काँपता-काँपता | कर्त्तव्य था, अतः उसका पालन किया। धर्मशाला में आया। मैंने कहा- 'चद्दर कहाँ है?' बोला- | हे प्रभो! यह मेरी आत्मकथा है जो कि आपके "एक बुढिया को दे आया हूँ।' ज्ञान में यद्यपि प्रतिभासित है, तथापि मैंने निवेदन कर __ एक बार इसको मैंने छह सौ रुपये की हीरा की | दी, क्योंकि आपके स्मरण से कल्याण का मार्ग सुलभ अंगूठी बनवा दी। इसने अपने गुरु अम्बादास शास्त्री को | हो जाता है, ऐसा मेरा विश्वास है।... इत्यादि आलोचना दे दी और मुझसे छह मास तक नहीं कहा। भय भी | कर बाई जी ने व्रत ग्रहण किया फिर वहाँ से चलकर करता था। अन्त में मैंने जब जोर देकर कहा कि अंगूठी | हम सब तेरापन्थी कोठी में आ गये। कहाँ है? तब बोला वह तो मैंने अष्टसहस्री पूर्ण होने | यहाँ पर पं० पन्नालाल जी ने कहा कि 'बाई की खुशी में शास्त्री जी को दे दी.... इस तरह मेरी | जी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं, अतः यहीं पर रह जाओ। जो आय होती थी वह प्रायः इसी के खर्च में जाती | हम सब उनकी वैयावृत्त्य करेंगे।' परन्तु बाई जी ने कहाथी। 'नहीं,' यद्यपि स्थान उत्तम है, परन्तु सर्व साधन नहीं। कुछ दिन के बाद मैं सिमरा छोड़कर बरुआसागर | अतः मैं जाऊँगी। वहाँ ही सर्व साधन की योग्यता है। जो कर्ज था सब छोड दिया | दो दिन रहकर गया आये। यहाँ पर श्री बाबू और मेरे रहने का जो मकान था वह मंदिर को दे दिया। | कन्हैयालाल जी ने बहुत आग्रह किया, अतः दो दिन केवल दस हजार की सम्पत्ति लेकर सिमरा से बरुआसागर | यहाँ रहना पड़ा। श्री बाई जी का निमन्त्रण बाबू कन्हैयालाल आ गई और सर्राफ मूलचन्द्र जी के यहाँ रहने लगी। | जी यहाँ था। उनकी धर्मपत्नी ने बाई जी का सम्यक् वे सौ रुपया मासिक ब्याज उपार्जन कर मुझे देने लगे। | प्रकार से स्वागत किया। बाई जी की चेष्टा देखकर उसे कुछ दिनों के बाद सागर आ गई और सि. बालचन्द्र | एकदम भाव हो गया कि अब बाई जी का जीवन थोड़े जी सवाल नवीस के मकान में रहने लगी। आनन्द से | दिन का है। उसने एकान्त में मुझे बुलाकर कहा कि, दिन बीतें। यहाँ पर सिंघई मौजीलाल जी बड़े धर्मात्मा | 'वर्णीजी! मैं आपको बड़ा मानती हूँ, परन्तु एक बात पुरुष थे। वह निरन्तर मुझे शास्त्र सुनाने लगे। कटरा में | आपके हित की कहती हूँ। वह यह कि जब तक बाई प्रायः गोलापूर्वसमाज के घर हैं। प्रायः सभी धार्मिक हैं। | जी का स्वास्थ्य अच्छा न हो, उन्हें छोड़कर कहीं नहीं यहाँ पर स्त्री समाज का मेरे साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो | जाना, अन्यथा आजन्म आपको खेद रहेगा। मैंने उनकी गया। यहाँ अधिकांश घरों में शुद्ध भोजन की प्रक्रिया | आज्ञा शिरोधार्य की। है। मैं जिस मकान में रहती थी उसी में कुन्दनलाल वहाँ से कटनी आये। श्वासरोग बाई जी को दिनघीवाले भी रहते थे, जो एक विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्ति दिन त्रास देने लगा। कटनी में मंदिरों के दर्शनकर सागर थे। इस प्रकार मेरा तीस वर्ष का काल सागर में आनन्द | के लिये रवाना हो गये और सागर आकर यथास्थान से बीता। अन्त में कटरा संघ के साथ यह मेरी अन्तिम | धर्मशाला में रहने लगे। यात्रा है। मेरा अधिकांश जीवन धर्मध्यान में ही गया। 'मेरी जीवनगाथा'/ भाग १/ मेरी श्रद्धा जैन धर्म में ही आजन्म से रही। पर्याय भर। पृष्ठ ४००-४०७ से साभार - जनवरी 2008 जिनभाषित 6 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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