Book Title: Jinabhashita 2007 01 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ अनुवाद- "शिवकुमार नामक राजकुमार भाव श्रमण और धीर (दृढ़मनस्क) था, इसलिए युवती-पत्नियों से घिरा होने पर भी निर्विकार रहने के कारण अल्पसंसारी हुआ। श्रुतसागरसूरि ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- "भावश्रमणश्च जिनसम्यक्त्ववासितः धीरो दृढसम्यक्त्वः अविचलितामलिनमनाः युवतिजनवेष्टितः हावभाव-विभ्रमविलासोपेत-राजकन्यात्मयुवतिसमूहपरिवतोऽपि विशद्धमतिः निर्मलब्रह्मचर्य-निष्कलुषचित्तः नाम्ना कृत्वा शिवकुमारो नरेन्द्रपुत्रः अल्पसंसारिकः परित्यक्तसंसारः आसन्नभव्यो जातः।" ___ अनुवाद - "शिवकुमार नामक राजकुमार भाव श्रमण अर्थात् जिनसम्यक्त्वयुक्त एवं धीर अर्थात् दृढसम्यग्दृष्टि या स्थितप्रज्ञ था। अतः अपनी हावभाव-विभ्रम-विलासवाली, राजकुलोत्पन्न, तरुणी पत्नियों के बीच में रहने पर भी उसका चित्त निर्मल ब्रह्मचर्य के कारण निष्कलुष रहता था, फलस्वरूप वह अल्पसंसारी हुआ।" सम्यग्दृष्टि गृहस्थ जल से कमलपत्रवत् विषयकषायों से अलिप्त आचार्य कुन्दकुन्द ने सम्यग्दृष्टि जीव की लोकोत्तरता दर्शाते हुए कहा है जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहिं सप्पुरिसो॥ 152 ।। भावपाहुड। अनुवाद - "जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष अर्थात् सम्यग्दृष्टि मनुष्य स्वभाव से ही क्रोधादिकषायों और पञ्चेन्द्रिविषयसुख की आकांक्षा से लिप्त नहीं होता। क्रोधादिकषायों और पञ्चेन्द्रियविषयसुख की आकांक्षा से लिप्त होना संसारीजीव का स्वभाव है, इनसे अलिप्त रहना सम्यग्दृष्टि जीव की लोकोत्तरता है। उक्त गाथा की टीका में श्रुतसागरसूरि ने अनेक दृष्टान्तों से इस निर्लिप्तता की पुष्टि करनेवाला निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है धात्रीबालाऽसतीनाथपद्मिनीदलवारिवत्। दग्धरज्जुवदाभासं भुञ्जन् राज्यं न पापभाक्॥ अनुवाद - "जैसे धाय बालक का लालन-पालन करती हुई भी उसे अपना पुत्र नहीं मानती, जैसे पति अपनी चरित्रहीन पत्नी से सम्बन्ध रखता हुआ भी उससे विरक्त रहता है, जैसे कमलिनीपत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंद उसमें समाती नहीं है, अपितु अलग बनी रहती है और जैसे जली हुई रस्सी 'रस्सी' जैसी दिखती है, पर उसमें बाँधने की शक्ति नहीं होती, वैसे ही सम्यग्दृष्टि गृहस्थ राज्य आदि का उपभोग करते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होता, अत: पाप का भागी नहीं बनता। ___आगम में सम्यग्दृष्टि गृहस्थ के संसार, शरीर और भोगों से वैराग्य की जो इतने दृष्टान्तों द्वारा प्रतीति करायी गयी है, उसे जो भावनग्न', 'भावश्रमण' और 'भावलिंगी' की उपाधियाँ प्रदान की गयी हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि आगम में उसे उच्च दृष्टि से देखा गया है, मात्र विषय-कषायों में लिप्त और आर्तरौद्रध्यानों में रत एक हीन मुनष्य की तरह नहीं। इस तरह तो मिथ्यादृष्टि गृहस्थ को देखा गया है। आचार्य समन्तभद्र ने सम्यग्दर्शन सम्पन्न चाण्डाल को भी आदरणीय बतलाया है। (रत्नकरण्डश्रावकाचार/ का. 1/28)। ____ इससे यह द्योतित किया गया है कि यदि मनुष्य में वर्तमान में परीषहजय-सामर्थ्याभाव के कारण मुनि बनने की शक्ति नहीं है, तो सम्यग्दृष्टि गृहस्थ बनना भी अर्थात् कथंचित् भावनग्न, भावश्रमण या भावलिंगी बनना भी बहुत बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि यह मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी और मुनित्व का सिंहद्वार है।और वस्तुतः इस सीढ़ी पर चढ़ना ही सबसे कठिन है। जो इस सीढ़ी पर आरूढ़ होने में सफल हो जाता है, उसे परीषहजयसामर्थ्य होने पर यथार्थ श्रमणत्व (भाव श्रमणत्वसहित द्रव्यश्रमणत्व) की प्राप्ति कठिन नहीं रहती। जो इस सीढ़ी पर आरूढ़ हुए बिना श्रमण बनने की कोशिश करता है, वह श्रमणाभास बनकर रह जाता है, क्योंकि केवल नाग्न्यादिपरीषह-सहन श्रमण का लक्षण नहीं है, बल्कि ख्याति-पूजा-लाभ-भोगाकांक्षा-त्यागपूर्वक तथा शत्रुमित्र, निन्दाप्रशंसा, सुखदुःखादि में समभावपूर्वक 6 जनवरी 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36