Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 22
________________ समाधिभक्ति (प्रियभक्ति) पाँच अरिंजय पाँच यशोधर, पाँचों मतिसागर वन्दूँ। पाँचों सीमंदर जिन वन्दूँ, नित बीसों जिनवर वन्दूँ॥ 11॥ चौबीसों जिन को नित वन्दूँ, रत्नत्रय को भी वन्दूँ। चारणऋद्धीधारी मुनि अरु , पंच महागुरु को वन्दूँ॥12॥ जो परमेष्ठी सिद्ध वर्ग या, शुचि आतम को बतलाये। अर्हम् उत्तम बीजाक्षर को, पूर्ण यत्न से हम ध्याये॥13॥ सम्यक्त्वादिक गुण युत हैं जो, अष्ट-कर्म का करके क्षय। नमूं सिद्ध सब परमेष्ठी को, मुक्तिरमा के जो आलय॥4॥ सुरसंपद का आर्कषण जो, मुक्तिरमा का वशीकरण। चतुगति आपद निराकरण जो, निज पापों का दूरकरण॥15॥ कुगति गमन को रोक रही जो, करे मोह का सम्मोहन। नमन पंच पद आराधन माँ, करे हमारा नित रक्षण ॥16॥ अनन्त भव की परम्परा के, छेदन का जो कारण है। जिनवर चरण कमल का सुमरण, शरण भूत मम तारण है। 17 ॥ मेरी शरण नहीं है कोई, शरण आप ही हो जिनवर। रक्षा करिए! रक्षा करिए! सो करुणा करके मुझ पर॥18॥ त्रय जग में तुम सा पालक ना, नहीं सुरक्षक त्राता ना। वीतराग सा अन्य देव भी नहीं हुआ है होगा ना॥19॥ सदा भक्ति हो सदा भक्ति हो सदा भक्ति हो जिनपद में। भव-भव में हो प्रतिदिन मेरी श्री जिनपद में, जिनपद में। 20॥ हे जिनवर! तव चरण कमल की भक्ति प्रार्थना नित्य करूँ। उसी-उसी की बार-बार में भक्ति याचना नित्य करूँ॥21॥ श्री जिनवर की थुति करने से विघ्न-जाल नश जाते हैं। विष निर्विष हो भूत शाकिनी सर्प दूर हो जाते हैं ।। 22॥ अंचलिका (दोहा) रत्नत्रय मय परमातम को, ध्यान रूप जिसका लक्षण। सदा समाधि भक्ति में अचूं, वन्दूँ, पूर्णां करूँ नमन। मेरे दुख कर्मों का क्षय हो, बोधिलाभ हो सुगति गमन। और समाधि मरण हो मेरा, मुझे मिले जिनपद-गुणधन॥ प्रस्तुति -विक्रम चौधरी, गोलू जैन जबलपुर (म.प्र.) 20 जनवरी 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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