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2. श्री मूलाचार गाथा 189 में इस प्रकार कहा है- | अर्थ- सर्वज्ञवीतरागदेव-कथित निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में अज्झयणे परियढे सवणे कहणे तहाणुपेहाए। | मुनि के उपकारी परिग्रह इस प्रकार कहे हैं- जैसा मुनि का तवविणय संजमेसु ये अविरहिदुपओग जोगजुत्ताओ॥ | स्वरूप चाहिए वैसा ही यथाजात रूप द्रव्यलिंग का होना, जो
अर्थ - वे आर्यिकाएँ शास्त्र पढ़ने में, पाठ करने, सुनने | | अनुभवी महामुनि है उनके प्रति विनयरूप प्रवृत्त होना तथा में, कहने में और अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन में तथा तप, विनय | शास्त्रों का अध्ययन करना।
और संयम में नित्य ही उद्यत रहती हुईं ज्ञानाभ्यास में तत्पर | | उपर्युक्त सभी प्रमाण ई. की पहली शताब्दी अथवा रहती हैं।
उससे पूर्व के हैं, जिनमें प्रमाण नं.1 से विदित होता है कि आ. ____ 3. इसी मूलाचार गाथा 896 में इस प्रकार कहा है- कुन्दकुन्द से पूर्व भी लिपिबद्ध शास्त्रों का सद्भाव था, तभी धीरो वइरग्गपरो थोवं हि य सिक्खिदूण सिझदि हु। । | तो उस ग्वाले ने शास्त्रदान किया। यह कथा ई. पू. की है। ण य सिज्झदि वेरग्गविहीणो पढिदूण सव्वसत्थाई॥
इसके अतिरिक्त शेष प्रमाण पहली शताब्दी के हैं, जिनमें ___ अर्थ - धीर, वैराग्य में तत्पर मुनि, निश्चितरूप से
आर्यिकाओं तथा मुनियों को शास्त्रों के पठनपाठन का उपदेश थोड़ी भी शिक्षा पाकर सिद्ध हो जाते हैं, किन्तु वैराग्य से हीन
दिया गया है। इससे ध्वनित होता है कि ई.पू. में भी लिपिबद्ध मुनि सर्वशास्त्रों को पढ़कर भी सिद्ध नहीं हो पाते।
शास्त्रों का सद्भाव था। 4. श्री प्रवचनसार 3/25 में इस प्रकार कहा है- ।
विद्वानों से निवेदन है कि इस संबंध में और प्रकाश उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। डालें। गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं च णिद्दिढं।।
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-28 2002 (उ.प्र.)
अनुकम्पा सागर से विहार करके आचार्य महाराज संघ-सहित नैनागिरि आ गए। वर्षाकाल निकट था, पर अभी बारिश आई नहीं थी। पानी के अभाव में गाँव के लोग दुखी थे। एक दिन सुबह-सुबह जैसे ही आचार्य महाराज शौच-क्रिया के लए मन्दिर से बाहर आए, हमने देखा कि गाँव के सरपंच ने आकर अत्यन्त श्रद्धा के साथ उनके चरणों में अपना माथा रख दिया और विनयभाव से बुन्देलखण्डी भाषा में कहा कि "हजूर! आप खो चार मईना इतई रेने हैं और पानृ ई साल अब लों नई बरसों, सो किरपा करो, पानू जरूर चानें हैं।" ___आचार्य महाराज ने मुस्कराकर उसे आशीष दिया, आगे बढ़ गए। बात आई-गई हो गई, लेकिन उसी दिन शाम होते-होते आकाश में बादल छाने लगे। दूसरे दिन सुबह से बारिश होने लगी। पहली बारिश थी। तीन दिन
नी बरसता रहा। सब भीग गया। जलमन्दिरवाला तालाब भी खूब भर गया।
चौथे दिन सरपंच ने फिर आकर आचार्य महाराज के चरणों में माथा टेक दिया और गद्गद कंठ से बोला कि "हजूर! इतनो नोई कई तो, भोत हो गओ, खूब किरपा करी।'
. आचार्य महाराज ने सहज भाव से उसे आशीष दिया और अपने आत्म-चिंतन में लीन हो गए। मैं सोचता रहा कि, इसे मात्र संयोग मानूँ या आचार्य महाराज की अनुकम्पा का फल मानूँ। जो भी हुआ, वह मन को प्रभावित करता है।
मुनि श्री क्षमासागरकृत 'आत्मान्वेषी' से साभार
जनवरी 2007 जिनभाषित 31
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