Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 26
________________ नींव की सृष्टि वह पुण्यापुण्य से रची इस चर्म-दृष्टि में नहीं अपितु, आस्था की धर्म-दृष्टि में ही उतर कर आ सकती है । (पृ. 121 ) मूकमाटी के माध्यम से आचार्यश्री ने उपादान और निमित्त का झगड़ा भी हल कर दिया है। उन्होंने काव्य के अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि कार्य का जनक उपादान कारण ही नहीं, अपितु निमित्त भी एक आवश्यक कारण केवल उपादान कारण ही कार्य का जनक है यह मान्यता दोष-पूर्ण लगी, निमित्त की कृपा भी अनिवार्य है। हाँ! हाँ! उपादान कारण ही कार्य में ढलता है यह अकाट्य नियम है किन्तु, उसके ढलने में निमित्त का सहयोग भी आवश्यक है। (पृ. 480-85 ) सारा महाकाव्य स्वभाव और विभाव की व्याख्या करता है । महासत्ता को पहचानने का पथ-दर्शन करता है। संगीत की छाया में आत्मा की शक्ति को अभिव्यक्त करता है और साधु के आचरण को पाथेय के रूप में प्रस्तुत करता है । वस्तुतः उसकी दृष्टि में व्यक्ति का आचरण उसकी खुली किताब है, जहाँ राग-द्वेष-मोह शान्त हो जाते हैं और आतंकवाद परदे के पीछे लुप्त हो जाता है। यही श्रमण की समता है और गणतन्त्र की परम्परा है। माटी से मंगल कलश तक पहुँचने में उसे जिन पड़ावों का आश्रय लेना पड़ता है, उनका सुन्दर और सरस चित्रण इस महाकाव्य में है। इसमें न द्वन्द्व है, न युद्ध है, न श्रृंगार है, न वियोग है, बल्कि सांसारिकता को समाप्त करने का एक अमिट पाथेय हर पन्ने में टंकित है, इसलिए शान्त रस इसका प्रमुख रस है, जहाँ करुणा की सरिता बहती है, आस्था का फूल खिलता है और चिदानन्द चैतन्यमय रस फलित होता है। इनके लिए स्व-पर- ज्ञान की अनुभूति आवश्यक है (पृ. 375 ) । शायद इसीलिए कवि ने कुंभ की विशेषता दिखाते हुए श्रमण की सही मीमांसा की है और समता की नयी-नयी पर्तें उकेरी हैं (पृ.377-380)। 24 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International सेठ का प्रसंग ला कर मच्छर और मत्कुण की भूमिका में समाजवाद का भी अपने ढंग से दार्शनिक अर्थ किया है (पृ. 461-67) I 'मूकमाटी' ' के तलस्पर्शी अध्ययन से यह तथ्य भी सामने आता है कि आचार्य श्री के मन नारी के प्रति अपार करुणा और संवेदना भरी हुई है। उसकी सामाजिक स्थिति से उन्हें संतोष नहीं और वे चाहते हैं कि नारी की शक्ति और प्रतिभा का विकास किया-कराया जाना चाहिए। माटी की भूमिका में उनका मन कदाचित् नारी की मूकता और उसकी प्रबल सत्ता के प्रति आश्वस्त रहा है। उन्होंने माँ की इयत्ता को पहिचाना है और नारी-वर्ग की अहमियत को परखा है, तभी तो माटी मंगलकलश बन कर सर्वोच्च पवित्र शिखर तक पहुँचती है, जहाँ अध्यात्म की सुन्दर सरिता बहती है और विशुद्ध वातावरण में अपनी गहरी साँस लेती है । यह उसी का उपादान है भले ही उसे किसी निमित्त की आवश्यकता रहती हो। माँ के प्रति कवि की ममता और आदर काव्य के प्रारम्भिक पन्नों में तो ही, पर उन्होंने द्वितीय खण्ड में यह कह कर उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया है कि माँ अपनी सन्तान की सुषुष्त शक्ति को सचेत और साकार कर देती है सत्संस्कारों से (पृ. 148 ) । इसी तरह चतुर्थ खण्ड में प्रकृति और पुरुष के बीच के संबंध को स्प्ष्ट करते हुए उन्होंने पुरुष में प्रतिबिम्बित क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं में नारी को ही प्रबल कारण माना है। उसके विकास और पतन की धुरी भी नारी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कवि ने लीक से हट कर नारी और उसके पर्यायवाची शब्दों की ऐसी सुन्दर मीमांसा की है, जिससे प्राचीन आचार्यों द्वारा किये गये इन शब्दों के अर्थ एकदम परदे के पीछे चले गये हैं और नारी की गरिमा मुखरित हो उठी है। नारी, महिला, जननी, अबला, कुमारी, स्त्री, सुता, दुहिता, धात्री, अंगना आदि शब्दों के यदि नये अर्थ आपको देखने हों, तो 'मूकमाटी' के पृष्ठ 201-208 पलट डालिये, तब आप उनमें पायेंगे कि आचार्यश्री की दृष्टि में नारी की उपादानशक्ति कितनी तेज है। इससे भी जब उन्हें संतोष नहीं हुआ, तो आगे के पृष्ठों में उन्होंने समता की आँखों से लखनेवाली मृदुता मुदिता - शीला नारी की और भी प्रशंसा की है। ऐसा लगता है कि उन्होंने नारी की सहनशीलता, उसके क्षीर-नीर-विवेक और उसकी स्नेहिलता को भलीभाँति पहचाना है, जिसे उन्होंने अपने काव्य में सशक्त शब्दों में उकेरा है (पृ. 208-214)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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