Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ जिससे वह यह कहना चाहता है कि एक समाज के बीच ही अधिकांश झगड़े हुआ करते हैं। समाज के दूसरे समाज के साथ झगड़े अपेक्षाकृत कम होते हैं। इसी के साथ कवि ने यह भी स्पष्ट किया है कि मछली प्रलोभन के वशीभूत होकर पानी से बाहर तो आ जाती है, पर पानी के बिना वह अपने जीवन को बचा भी नहीं पाती। यह सोचकर शिल्पी उसे कुए में वापिस छोड़ देता है। यह रूपक स्पष्ट करता है कि व्यक्ति कितना भी शक्तिशाली हो समाज से दूर रहकर अपना विकास नहीं कर सकता। उसके जीवन का धर्म दया होना चाहिए- 'धम्मो दयाविसुद्धो' (पृ.188 ) । स्वभाव और विभाव की मीमांसा इस संदर्भ में द्रष्टव्य है अन्त समय में अपनी ही जाति काम आती है। शेष सब दर्शक रहते हैं दार्शनिक बनकर! और विजाति का क्या विश्वास? आज श्वास- श्वास पर विश्वास का श्वास घुटता-सा देखा जा रहा प्रत्यक्ष ! महाकाव्य का दूसरा भाग व्यक्तित्व के निर्माण का है, जिसमें उसका अहं विसर्जित हो जाता है और वह अपने आराध्य को समर्पित हो जाता है। इस प्रसंग में कवि ने मिट्टी में पानी का मिश्रण किया और पानी ने माटी में नये प्राण फूँ । माटी फूल गयी और फिर शिल्पी उसे सँभालने आया। उसने देखा, माटी में एक टूटा अधमरा काँटा पड़ा हुआ है, जिसमें जीने की तो आशा है, पर मन से माया दूर नहीं हुई । यही प्रसंग आगे बढ़ता जाता है और काँटे और फूल के बीच संवाद उपस्थित होता है। काँटे के बिना फूल का अस्तित्व ही क्या? यह इसका प्रतीक है कि जीवन संघर्ष की कहानी है और संघर्षों से ही जीवन विशुद्धि की ओर बढ़ता है । शिल्पी माटी को पैर से रौंदता है और उसे घड़े के अनुकूल बनाता है। माटी शिल्पी के पैरों से कुचली जाने पर भी मौन रहती है और उसका मन मान-माया से मुक्त रहता । इस संदर्भ में कवि ने बड़ी सुन्दर और सरस शैली में नव रसों के स्वरूप को उद्घाटित किया है। इस बीच माटी का आसपास समाप्त हो जाता है और शिल्पी उसे चाक पर चढ़ा देता ****** है । कुम्भकार का यह चक्र संसार का संसरण है, जन्म-मरण की प्रक्रिया है। आचार्य ने इसे अरहट्ट की भी उपमा दी है। 22 जनवरी 2007 जिनभाषित Jain Education International काव्य का तृतीय खण्ड कुंभ की परीक्षा से संबद्ध है। वह आग में पकाया जाता है। एक ओर उसे अँवा की अग्नि का सामना करना पड़ता है, तो दूसरी ओर सूर्य का और बादलों का प्रकोप सहन करना पड़ता है। इस प्रसंग में कवि ने परम्परा से अलग हट कर महिलाओं की प्रशंसा की है और उनकी शक्ति को पहचाना है। इसके आगे माटी को इन्द्र-वज्र, मेघ, बिजली और ओलों का भी सामना करना पड़ता । इस सबके बावजूद माटी का घड़ा अडिग रहता है, भस्म नहीं होता । घड़े की ये सारी परीक्षाएँ, जीवन की परीक्षाएँ हैं, जिसमें साधक का उत्तीर्ण होना आवश्यक है। चतुर्थ खण्ड में घड़े की अन्तिम परीक्षा है। शिल्पी अँवा का निर्माण करता है बबूल की लकड़ियाँ लगाकर और फिर उसमें कुंभ को अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। अग्नि से उठा हुआ धुआँ (तामस ) कुम्भ खा लेता है और उससे उसमें समता आ जाती है। यह समता वर्गातीत अपवर्ग का प्रतीक है। इसके बाद कुम्भ को बाजार में रखा जाता है, जहाँ एक सेठ उसकी परख करके खरीद लेता है और उसका उपयोग साधु-संत के आहार दान में पड़गाने हेतु मंगल कलश के रूप में करता । यही कुम्भ नदी की बाढ़ से सेठ को बचाता है। सभी कुम्भ के माध्यम से नदी के पार हो जाते हैं। इस खण्ड में कथा को आगे बढ़ाने के लिए साधु की आहार- प्रक्रिया, सेठ के विविध रूप, मच्छर-मत्कुण, आतंकवाद आदि जैसे तत्त्वों को भी समाहित किया गया है। समूचा काव्य निर्मुक्त छंद में लिखा गया है, इसलिए पढ़ने में एक प्रवाह बना रहता है, परन्तु वह प्रवाह जाता है, जब कवि किसी प्रसंग को अनावश्यक रूप से ला देता है अथवा अनावश्यक रूप से उसका विस्तार करने लगता है। उदाहरण के तौर पर सेठ द्वारा आहार दान की प्रक्रिया | 'मूकमाटी' का कवि प्रकृति का सुन्दर चितेरा है, उसकी कल्पना में माटी प्रकृति प्रदत्त तत्त्व है, जिसके वर्ण से ही काव्य प्रारंभ होता है। सरिता तट की माटी के प्रसंग में उषःकाल का वर्णन देखिए, कितनी गहराई है कवि - कल्पना में प्राची के अधरों पर मन्द मधुरिम मुस्कान है सर पर पल्ला नहीं है और, सिंदूरी धूल उड़ती-सी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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