Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 29
________________ यदि 250 विद्वानों और हजारों समाज के नर-नारियों । निर्धारित सात बिन्दुओं पर खुलकर चर्चा की, और ग्यारह की उपस्थिति में निष्पक्ष चर्चा नहीं हो सकती, तो आप ही | सूत्री आगमसम्मत अपील समाज के नाम जारी की तो इसमें बतायें कि निष्पक्ष चर्चा कहाँ हो सकती है? हमारी | कौन सी चाटुकारिता हो गई? कहीं आपको यह अफसोस 'विद्वत्परिषद्' वहाँ विचार के लिए आने को तैयार है। रही तो नहीं था कि आपको उसमें आमंत्रित क्यों नहीं किया बात 'कुण्डलपुर' (दमोह) में नवीन मंदिर निर्माण सम्बंधी | गया? या आप संगोष्ठी एवं अधिवेशन में मिले ज्ञान एवं एजेण्डे की, तो इस विषय में विद्वत्परिषद् का एजेण्डा सम्मान से वंचित रह गये? आप स्वयं भले ही महानता का जगजाहिर है कि वहाँ बड़े बाबा की सुरक्षा हेतु भव्य मंदिर | आवरण ओढ़े रहें, किन्तु आपने अपने बयान से सिद्ध कर बनना चाहिए। इस विषय में यदि प.पू. आचार्य श्री विद्यासागर । दिया है कि आपको न साधु का सम्मान करना आता है और जी महाराज की सहमति है.तो हम उनके साथ हैं और यदि न ही आप विद्वानों की विद्वत्ता के कायल हैं। श्री हेमन्त उन्हें छोडकर कोई अन्य आचार्य या साध इसका समर्थन काला के द्वारा यह कहना कि मुनिश्री सुधासागर जी को करता है, तो हम उनके भी साथ हैं। हमें सकारात्मक | आगम का ज्ञान नहीं है, एक निर्लज्ज कथन है, जिसकी जितनी दृष्टिकोणवाले किसी भी साधु-संत, विद्वान् , पत्रकार या | भी निन्दा की जाए कम है।मुनिपुङ्गव श्री सुधासागर जी महाराज बंधु से कोई परहेज नहीं है। दिशाबोध' पूर्व में भी विद्वत्परिषद | को उनके जैसे किसी विद्वान् के प्रमाणपत्र की आवश्यकता एवं विद्वानों को लेकर आनी मनगढन्त टिप्पणियाँ कर चुका नहीं है। उनके लिये सबसे बड़ा प्रमाणपत्र तो उनके गुरु है। हम इसलिए चुप रहे कि आज नहीं कल, उनकी लेखनी | आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का आशीर्वाद है, जो में सुधार होगा, लेकिन लगता है वे दूसरों में ही सुधार चाहते | उनके साथ सदा रहता है। वे आगम के यथार्थ ज्ञानी हैं. हैं, खुद में नहीं। अत: पाठक किसी प्रकार के भ्रम में न रहें | विनयशील हैं, अध्ययन-निष्णात हैं। वे जानते हैं कि समाज और विद्वत्परिषद् के प्रति अपना पूर्ववत् सहयोग जारी रखें। हित में क्या सही है और उन्हें क्या करना है। आपको इस श्री हेमन्त काला की गलत बयानी । विषय में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। आप स्वयं हम और हमारे विद्वान् साथी श्री हेमन्त काला के | सतचिन्तन करें तो समाज अनेक चिन्ताओं से बच सकता है। 'दैनिक भास्कर', उदयपुर में छपे उस वक्तव्य की निन्दा | आपका जिस प्रकार का छलभरा आगमविरोधी लेखन चल करते हैं, जिसमें उन्होंने मुनिश्री सधासागर जी महाराज के | रहा है, उसे समाज कभी मान्य नहीं करेगा,ऐसा मेरा विश्वास प्रति अत्यन्त अशोभनीय, अयथार्थ शब्दावली का प्रयोग करते हुए, उनके सान्निध्य में जो विशाल विद्वत्सम्मेलन ___ 'समन्वय वाणी' के सम्पादक श्री अखिल बंसल ने हआ था, उस पर विपरीत टिप्पणी करते हुए कहा है कि- | अपने संपादकीय- 'मुनिश्री सुधासागर जी के उद्गारों से उठा __ "विद्वत् जन सम्मेलन में चाटुकार लोगों को बुलवाया, जिन्होंने | बवाल' (वर्ष-26, अंक-12, दि. 16-30 नवम्बर, 06) में एक-दूसरे का गुणगान किया।" मैं हेमन्त काला से पूछना जिस तरह मुनिश्री सुधासागर जी महाराज और अखिल चाहता हूँ कि- "क्या देश के मूर्धन्य विद्वानों सहित 250 भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद् को निशाना बनाया है, विद्वानों का सम्मेलन चाटुकार लोगों का सम्मेलन कहलाता वह उनकी मन:स्थिति को उजागर करता है। उनके विचार है? अगर यह चाटुकार लोगों का सम्मेलन था. तो फिर इस प्रकार के हैं कि पता ही नहीं चलता कि वे क्या चाहते आपकी दृष्टि में ऐसा कौन सा विद्वत्सम्मेलन हुआ है, जिसे | हैं? वे आचार्य विद्यासागर जी जेसे महान् संत के लिए आप विद्वत्सम्मेलन मानते हों? दूसरे, इसमें वह कौन सा | लिखते हैं कि- "वे अपने आगे अन्य किसी को कुछ प्रसंग था, जिसमें एक-दूसरे का गुणगान किया गया हो? | समझते नहीं।" दूसरी और लिखते हैं कि- "मुनि श्री सुधासागर शास्त्रिपरिषद् एवं विद्वत्परिषद् केअधिवेशन के पूर्व देश के | जी के गुरु आचार्यश्री विद्यासागर जी, जिनका बुन्देलखण्ड शीर्षस्थ विद्वानों ने आज की ज्वलन्त समस्या समाधिमरण। में अच्छा खासा प्रभाव है, मुनिचर्या पालने में इस ग्रुप का सल्लेखना/संथारा पर 'भगवती आराधना' ग्रंथ के आलोक कोई सानी नहीं है। तेरह पंथ आम्नाय के प्रभावशाली संतों में में चर्चा की, उसे आत्महत्या के विपरीत 'जैन धार्मिक सिरमौर हैं। अपनी चर्या, आगमज्ञान एवं स्वाध्याय के प्रति मौलिक क्रिया' सिद्ध किया और प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया | जागरूक होने के कारण 20 पंथी साधुओं की तुलना में के माध्यम से संसार के 122 देशों तक इस संदेश को अधिक प्रभावशाली हैं।" अब पाठक ही विचार करें कि पहँचाया, तो क्या यह चाटुकारिता थी? अधिवेशन में भी पूर्व | उनकी मनः स्थिति क्या है? जहाँ तक मुझे पता है, आचार्य - जनवरी 2007 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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