Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ चुप्पी तोड़ें विद्वान् | प्राय: यह देखने में आता है कि विद्वान् अपनी प्रतिष्ठा को देखते हुये चुप रहने में अधिक विश्वास करते हैं। उनकी इस कमजोरी का समाज के बाधक तत्त्व लाभ उठाते हैं। हमारे विद्वानों को चाहिए कि वे चुप्पी तोड़ें और अपनी राय को पुरजोर तरीके से समाज के मध्य रखें। ज्ञानार्णव के नवम सर्ग में लिखा है कि " जहाँ धर्म का नाश होता हो, क्रिया बिगड़ती हो तथा समीचीन सिद्धान्त का लोप होता हो, वहाँ विद्वानों को बिना पूछे भी बोलना चाहए।" इतिहास बताता है कि भले ही सत्य बात बोलने पर विद्वानों की हत्या तक हुई हो, लेकिन उनके द्वारा बोले गये सत्य से समाज का हित ही हुआ है। वीर निकलंक एवं पं. टोडरमल जी के बलिदान हमसे यही अपेक्षा रखते हैं। समाज में विद्वानों की दो परिषदें सर्वमान्य हैं- 1. अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, 2. अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् । समाज की ये परिषदें दिगम्बर जैन साधुओं के प्रति पूर्ण निष्ठावान् हैं तथा समय-समय पर उनसे प्रेरणा एवं आशीर्वाद लेकर कार्य करती हैं। विगत कुछ दिनों से कुछ पत्रकारों ने इन्हें मानो अपनी भँड़ास निकालने का केन्द्र बना लिया है। अभी हाल ही में 'दिशाबोध', 'समन्वय वाणी', 'जैन चिन्तन' आदि में अनावश्यक, बिना सच्चाई जाने विपरीत टिप्पणियाँ की गयी हैं, जो नितान्त अनुचित हैं। अच्छा होता यदि वे कुछ लिखने से पहले इन परिषदों के पदाधिकारियों से विचारविमर्श करते। जरूरी नहीं समझते हुए भी मैं मंत्री के नाते उठाये हुए कुछ बिन्दुओं पर प्रकाश डाल रहा हूँ'दिशाबोध' को दिशाबोध की आवश्यकता है कोलकाता से प्रकाशित 'दिशाबोध' के वर्ष - १० अंक१२ सितम्बर - २००६ में अपने विशेष संपादकीय - 'चार चातुर्मासिक चिंतन' में 'विद्वानों की गरिमा में ह्रास का कारण शीर्षक से विद्वत्परिषद्' के १५ दिन के अंतराल में दो अधिवेशन बुलाने पर आपत्ति करते हुए डॉ. चिरंजीलाल बगड़ा ने संस्था-पदाधिकारियों की मानसिकता एवं विद्वानों की गरिमा पर प्रश्नचिह्न उठाया है। इससे विद्वानों में 'दिशाबोध' के प्रति गहरी नाराजगी है। लेकिन जैसा कि मैं 'दिशाबोध' के सम्पादक को जानता हूँ, उन्हें ऐसी नाराजगी में मजा आता है। वैसे 'दिशाबोध' अपनी ढपली अपना राग" के अतिरिक्त और क्या है? वे अपने चश्मे से सबको देखते हैं और स्वयं को स्वयं ही श्रेष्ठ घोषित करते हुए । 26 जनवरी 2007 जिनभाषित 44 Jain Education International डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन लज्जा तक का अनुभव नहीं करते। मैं उन्हीं के लिखे अनुसार उनसे पूछता हूँ कि आपने यह कैसे कह दिया कि " अधिकांश विद्वान् अपनी अस्मिता भुलाकर साधुओं को मात्र अपने स्वार्थ हित का माध्यम बनाकर खेमेबन्दी के शिकार होने लगे?" वे बतायें कि 'अधिकांश विद्वान्' का उनका पैमाना क्या है? वे कौन से साधु हैं, जो स्वार्थहित का माध्यम बने हैं या खेमेबन्दी के शिकार हैं ? यदि 15 दिन के अंतराल में दो अधिवेशन होते हैं तो, वे आपत्ति करनेवाले कौन होते हैं? वे न विद्वत्परिषद् के सदस्य हैं, न आयोजक, न प्रायोजक ? दूसरे जब उन्हें छपे पत्र में भी सात बिन्दुओं में मात्र एक बिन्दु दिखता है, तो जैसा कि उन्होंने स्वयं अगले पृ. २७ पर लिखा है कि " शायद वह मेरा दृष्टि दोष ही है" सो उचित ही है। आप व्यर्थ ही 'ही' के साथ 'शायद' लगा रहे हैं क्योंकि जहाँ 'शायद' होता है, वहाँ 'ही' नहीं होता और जहाँ 'ही' होता है वहाँ ' शायद' नहीं होता। भले ही आप स्वयं के 'प्रज्ञाचक्षु' से दखने की बात कहते हों, किन्तु प्रज्ञाचक्षु की आवश्यकता तो उन्हें होती है, जिनकी आँखें न हों। यदि आप आँख और प्रज्ञा का सही इस्तेमाल करते तो, जो आपने लिखा उसकी नौबत ही न आती । के रही बात दो अधिवेशन की, तो पाठकों की जानकारी लिए बता दें कि सागर में आयोजित अधिवेशन 'विद्वत्परिषद्' के आम चुनाव एवं स्व. पं. वंशीधर जी व्याकरणाचार्य के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के मूल्यांकन हेतु विद्वत्संगोष्ठी के सन्दर्भ में बुलाया गया था। दूसरा उदयपुर में आयोजित अधिवेशन अकेले 'विद्वत्परिषद्' का न होकर 'शास्त्रिपरिषद्' के साथ संयुक्त रूप से आयोजित था, जो प्रथम बार आयोजित किया गया था। जो कार्य देव-शास्त्रगुरु के सान्निध्य में समाज के मध्य खुले मंच से होता है, वह सही होता है, सार्थक होता है, उसे साधु, स्वार्थ या खेमेबन्दी से जोड़ना लेखनी को कलंकित करने के अतिरिक्त और क्या है ? अगर बगड़ा जी को लिखना ही था, तो उन सात बिन्दुओं पर अपने विचार / सुझाव देते, जिन पर यह अधिवेशन आयोजित था । 'विद्वत्परिषद्' के पदाधिकारियों एवं विद्वानों ने सदैव अपनी गरिमा बचाये रखी है, हाँ पत्रकारिता के क्षेत्र में आप जैसों के आ जाने से समाज में 'दिशाबोध' के नाम पर भ्रम परोसने से अवश्य पत्रकारों और पत्रकारिता की गरिमा कम हुई है, इस पर विचार की आवश्यकता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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