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रंगीन-राग की आभा
| हुआ है। उदाहरण के तौर पर, बहता पानी रमता जोगी भायी है, भायी ....!
(पृ.448), बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख (पृ. लज्जा के बूंघट में
454), बायें हिरन दायें जाए, लंका जीत राम घर आये (पृ. डूबती-सी कुमुदिनी
24) मुँह में राम बगल में छुरी (पृ.72) आदि। प्रभाकर के कर-छुवन से
कवि की मातृभाषा कन्नड़ है, लेकिन हिन्दी का यह बचना चाहती है वह,
विशाल महाकाव्य देकर उसने यह सिद्ध कर दिया है कि अपनी पराग को
हिन्दी कितनी सरल और सुबोध है। कवि संस्कृत, प्राकृत, सराग मुद्रा को
अपभ्रंश जैसी प्राचीन भाषाओं का पण्डित तो है ही, पर उसे पाँखुरियों की ओट देती है।
मराठी, तमिल, गुजराती, हिन्दी तथा अंग्रेजी जैसी भाषाओं ऐसा लगता है कवि प्रकृति की गोद में बैठ कर | का भी गहन अध्ययन है। प्रस्तुत महाकाव्य में इन भाषाओं अपने-आपको अधिक स्वस्थ पाता है। शीतकालीन सूर्य | के जहाँ कहीं कतिपय शब्द नजर आते है, पर उनसे हिन्दी की किरणें उसे तब अधिक भाती हैं, जब वे पेड़-पौधों की | की प्रांजलता में कोई अन्तर नहीं आता। काव्य की संस्कृतडाल-डाल पर बरसने लगती है। दिन की सिकुड़न डरती- | निष्ठ शैली में उसने जो रसोद्रेक किया है उसकी चर्वणा में बिखरती-सी लगती है और रात के विस्तार में भय, मद और | पाठक आकण्ठ मग्न हो जाता है, वह कहीं ऊबता नहीं है, अघ का भार दिखायी देता है (पृ. 90-91)। कदाचित् यही | एक ही बैठक में उपन्यास-जैसा पढ़ लेना चाहता है। इसके कारण है कि आचार्यश्री को माटी का प्रयोग बहुत भाता है। बावजूद काव्य में गहनता और विदग्धता भरी हुई है। उन्होंने आहार के संदर्भ में प्राकृतिक चिकित्सा की बहुत । यह बात तो हुई काव्य के भाव-पक्ष और कला-पक्ष पैरवी की है। उनकी दृष्टि में हर मर्ज की दवा माटी का | की, अब हम थोड़ा दर्शन-पक्ष को भी टटोल लें। कवि ने प्रयोग है। यहाँ तक की हाथ-पैर की टूटी हुई हड्डी भी उससे | काव्य के प्रारंभिक पन्नों में 'आस्था' का महत्त्व दर्शाया है, जुड़ जाती है। पेय के रूप में दूध और तक्र तथा मधुर | जिससे ऐसा लगता है कि सम्यग्दर्शन का महत्त्व प्रस्तुत पाचक सात्त्विक भोजन के रूप में कर्नाटकी ज्वार का रवादार किया जा रहा है। सरिता-तट की माटी के उत्तर में माँ सरिता दलिया अधिक अच्छा लगता है (पृ. 405-407)। वे इसे | ने संगीत का फल और आस्था का महत्त्व बताया है, जो अहिंसा-परक चिकित्सा पद्धति मानते हैं और ध्यान-साधना | सम्यक्-दर्शन के प्रस्थान-बिन्दु को घोषित करता हैके लिए उपयोगी समझते हैं।
इसलिए, जीवन का ____ कवि के प्रकृति-प्रेम के साथ ही हमारा ध्यान उनकी आस्था से वास्ता होने पर काव्यात्मक प्रतिभा की ओर भी आकर्षित होता है। अन्त रास्ता स्वयं शास्ता होकर तक यह काव्य शब्दार्थालकारों से गूंथा हुआ है। शिल्पी जब सम्बोधित करता साधक को माटी को पैरों से रौंदता है, तो कवि उस संदर्भ में वीर, हास्य, साथी बन साथ देता है। रौद्र आदि नव रसों का सुन्दर कल्पनाओं से भरा वर्णन आस्था के तारों पर ही करता है और उसकी आकर्षक पारमार्थिक व्याख्या भी साधना की अंगुलियाँ (पृ.128-146)। उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक की गोद में यमक चलती हैं साधक की, और अनुप्रास अलंकारों की छटा देखते ही बनती है। शब्दों सार्थक जीवन में तब की समन्वयीकरण-पद्धति में कवि अधिक माहिर है। जैसे स्वरातीत सरगम झरती है! अवसान, अब+शान (पृ.1), कम्बल, कम्+बल (पृ. 92), समझी बात, बेटा? नमन, न+मन (पृ. 97), राजसत्ता, राजस+ता (पृ. 104), आस्था की यात्रा कवि की दृष्टि में निष्ठा और प्रतिष्ठा पावनता, पाँव+नता (पृ.114), परखो, पर+खो (124), धोखा, | से चलकर संस्था में परिणत होती है, जिसे उसने अव्यय धोखा (पृ.120), स्वप्न स्व+प+न (पृ.295) आदि। इस | अवस्था कहा है और उसे ही सच्चिदानन्द का केन्द्र-बिन्दु काव्य में लोकोक्तियों और मुहावरों का सुन्दर विश्लेषण भी ! बतलया है। (पृ. 121)। तभी तो वह कह सका
जनवरी 2007 जिनभाषित 23
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