Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 15
________________ इसे परीक्षण करने से इनमें विषमताएँ एवं विपरीतता मिलेगी। डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने अपनी प्रस्तावना कुन्दकुन्दकृत मानने का प्रयास किया है। उन्होंने प्रस्तावना के पृ. ९२ पर 'रचनाएँ' शीर्षक पैरों में लिखा है कि " श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने आचार्य कुन्दकुन्द की २२ रचनाओं का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं।" इस सूची में रयणसार का नाम भी है। इस सूची के साथ रयणसार के सम्बन्ध में श्री मुख्तार साहब का उक्त मत उद्धृत नहीं किया, जिससे पाठक यही समझें कि मुख्तार सा. रयणसार को कुन्दकुन्दकृत ही मानते थे, जब कि वास्तविक स्थिति दूसरी ही है। डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने 'अनेकान्त' के जनवरी-मार्च ७६ के अंक में 'रयणसार-स्वाध्याय परम्परा में' शीर्षक लेख में लिखा है- " रयणसार नाम की एक अन्य कृति का उल्लेख दक्षिण भारत के भण्डारों की सूची में हस्तलिखित ग्रंथों में किया गया है। श्री दिगम्बर जैन म. चित्तामूर, साउथ आरकाड मद्रास प्रांत में स्थित शास्त्रभंडार के क्रम सं. ३९ में प्राकृत भाषा के रयणसार ग्रन्थ का नामोल्लेख है और रचयिता का नाम वीरनन्दी है, जो संस्कृत टीकाकार प्रतीत होते हैं । इस टीका की खोज करनी चाहिए।" समझ में नहीं आया कि डॉक्टर साहब ने ग्रंथ को बिना देखे ही कैसे मान लिया कि वीरनन्दी संस्कृत - टीकाकार प्रतीत होते हैं, जबकि उन्होंने स्वयं सूची में रचयिता के स्थान पर वीरनन्दी का नाम स्पष्ट लिखा हुआ बताया है। चूँकि प्रति सामने नहीं है, अतः अन्य 1 लेकर जनम गरभ से बाहर, जबसे जनम मरण में आयो उलझ गयो झगड़ों के बीचाँ बिरथा जनम गँवायो । मुख से बोले ना साँचे बोल, हिरा दव हीरा ककरन में तुमने जानो ना रतन को मोल, हिरा दव हीरा ककरन में ॥ 2 नसा दई कंचन सी काया कर-कर करनी खोटी अपनो खोटो दाम होय तो परखड़ये का खोरी । अपने मन की किवरिया खोल हिरा दव हीरा ककरन में तुमने जानो ना रतन को मोल, हिरा दव हीरा ककरन में ॥ Jain Education International कल्पना करना ठीक नहीं है। फिर भी प्राप्त सूचनानुसार सूची में प्राकृत भाषा के रयणसार के कर्त्ता का नाम वीरनन्दी हैं, न कि कुन्दकुन्द । जब तक इसे गलत सिद्ध नहीं किया जावे, इस सूची के वर्णन को सही मानना समीचीन होगा । मध्यकाल में वीरनन्दी हुए हैं, उन्होंने आचारसार लिखा था, सम्भव है रयणसार भी उन्हीं का लिखा हुआ हो । विद्वान् सम्पादक डॉ. देवेन्द्रकुमार जी ने इसकी कई गाथाएँ प्रक्षिप्त बतलाकर मूल ग्रन्थ से अलग प्रस्तुत की हैं, फिर भी ग्रन्थ में कुछ गाथाएँ ऐसी और हैं, जिन पर क्षेपक लिखा हुआ है, अतः इसके मूल अंश और क्षेपकांश का निर्णय हो पाना सहज नहीं है। अतः अंतरंग-बहिरंग परीक्षण से यह ग्रन्थ वीतराग परम तपस्वी दिगम्बर कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लिखा हुआ नहीं मालूम होता, अपितु किसी भट्टारक या और किसी द्वारा उनके नाम पर लिखा हुआ प्रतीत होता है । विद्वानों से मेरा नम्र अनुरोध है कि वे इस ग्रन्थ का सम्यक् प्रकार से तुलनात्मक अध्ययन कर अपना मन्तव्य प्रस्तुत करें, ताकि लोगों को सही स्थिति ज्ञात हो जावे। १. इसमें विषयों का व्यवस्थित वर्णन नहीं है। दान, सम्यग्दर्शन, मुनि, मुनिचर्या आदि का क्रमशः वर्णन न होकर कभी दान का, कभी सम्यग्दर्शन का, कभी पूजन का, कभी मुनि का वर्णन इधर उधर अप्रासंगिक रूप से असंबद्ध रूप से मिलता | बुन्देलखण्डी भजन तुमने जानो ना रतन को मोल, हिरा दव हीरा ककरन में 'जैन सन्देश' शोघांक ३९, भाग संख्या ५० २३.२.१९७८ से साभार 3 अवसर चूक न जावो भैया कर लो ठीक ठिकानो औरन के गुण परखत भैया खुद के भी पहचानो । मुख से बोले न साँचे बोल हिरा दव हीरा ककरन में तुमने जानो ना रतन को मोल, हिरा दव हीरा ककरन में ॥ 4 विद्यासागर बार-बार समझावें चेतन चेतो प्राणी जो अवसर गव निकर तो भैया फिर होगी पछतानी । इस चौरासी योनी में मत डोल हिरा दव हीरा ककरन में तुमने जानो ना रतन को मोल, हिरा दव हीरा ककरन में ॥ प्रस्तुति - मीनादेवी जैन ओसवाली मोहल्ला, मदनगंज किशनगढ़ (राज.) जनवरी 2007 जिनभाषित 13 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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