Book Title: Jinabhashita 2007 01
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ "इस ग्रंथ के कुन्दकुन्दाचार्यरचित होने की बहुत | आचार्य या विद्वान् ने उस समय तक इसका कोई उल्लेख कम सम्भावना है अथवा इतना तो कहना ही चाहिए कि | या उद्धरण दिया है। कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचंद्र, इसका विद्यमान रूप ऐसा है जो हमें संदेह में डालता है। पद्मप्रभमलधारी, जयसेन आदि टीकाकारों ने भी इसका इसमें अपभ्रंश के कुछ श्लोक हैं और गण-गच्छ और संघ | कहीं भी उल्लेख नहीं किया। पं. आशाधर, श्रुतसागर आदि के विषय में जिस प्रकार का विवरण है, वह सब उनके टीकाकारों ने भी अपनी टीकाओं में इसका उल्लेख नहीं अन्य ग्रन्थों में नहीं मिलता।" (पृ. २०) किया, जबकि उनकी टीकाओं में प्राचीन ग्रंथों के उद्धरण __पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने 'रयणसार' को प्रचुरता से मिलते है। 'कुन्दकुन्दभारती' नामक कुन्दकुन्द के समग्रसाहित्य में इसलिए ३.१७वीं शताब्दि से पूर्व की इसकी कोई हस्तलिखित सम्मिलित नहीं किया कि इसमें गाथा संख्या विभिन्न प्रतियों | प्रति लेखनकाल-युक्त अभी तक नहीं मिली। कोई व्यक्ति में एक रूप नहीं है। कई प्राचीन प्रतियों में कुन्दकुन्द का | | किसी प्रति को अनुमान से किसी भी काल की बता दे, वह नाम रचनाकार के रूप में नहीं है। बात प्रामाणिक नहीं कही जा सकती है। स्व. डॉ. नेमीचन्द जी ज्योतिषाचार्य ने 'तीर्थंकर ४. कुन्दकुन्दाचार्य की रचनाओं में विषय को व्यवस्थित और उनकी आचार्य परम्परा' के दसरे खण्ड में पृष्ठ | रूप से प्रस्तत किया गया है, जबकि इसमें पं. जगलकिशोर ११५ पर रयणसार के सम्बन्ध में डॉ. उपाध्ये का मत उद्धृत जी मुख्तार के शब्दों में "विषय बेतरतीबी से प्रस्तुत किए करते हुए लिखा है "वस्तुतः शैली की भिन्नता और विषयों गए हैं।" वैसे कहा यह जाता है कि 'रयणसार' की रचना के सम्मिश्रण से यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दरचित प्रतीत नहीं होता।" प्रवचनसार और नियमसार के पश्चात् की गई थी (देखें, __डॉ. लालबहादुर शास्त्री ने अपने 'कुन्दकुन्द और रयणसार प्रस्तावना डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री पृ. २१), किन्तु उनका समयसार' नामक ग्रन्थ में रयणसार का परिचय देकर | रयणसार एवं इन ग्रन्थों की तुलना से विदित हो जाता है कि लिखा है कि "रयणसार की रचना गम्भीर नहीं है, भाषा भी | प्रवचनसार और नियमसार जैसे प्रौढ़ एवं सुव्यवस्थित ग्रन्थों स्खलित है, उपमाओं की भरमार है। ग्रन्थ पढने से यह का रचयिता 'रयणसार' जैसी संकलित, अव्यवस्थित, पूर्वापरविश्वास नहीं होता है कि यह कुन्दकुन्द की रचना है। यदि विरुद्ध और आगमविरुद्ध रचना नहीं लिखेगा। (इसके आगम कुन्दकुन्द की रचना यह रही भी होगी, तब इसमें कुछ ही विरुद्ध मंतव्यों का आगे विवेचन किया जायेगा।) गाथाएँ ऐसी होंगी, जो कुन्दकुन्द की कही जा सकती हैं। शेष | ५. इसकी विभिन्न प्रतियों में गाथा संख्याएँ समान गाथाएँ व्यक्तिविरोध में लिखी हुई प्रतीत होती हैं। गाथाओं | नहीं है, वे १५२ से लेकर १७० तक हैं। की संख्या १६७ है।'' (पृ. १४२) । (इस ग्रन्थ का विमोचन ६. कुन्दकुन्दाचार्य के गन्थों में उच्चस्तरीय प्राकृत उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी के आशीर्वाद से हुआ है।) । भाषा के दर्शन होते हैं, उनके काल में अपभ्रंश भाषा थी ही इस प्रकार उक्त विद्वानों व अन्य प्रमुख विद्वानों द्वारा नहीं। उसका प्रचलन एवं प्रयोग कुन्दकुन्द के सैकड़ों वर्ष भी 'रयणसार' कुन्दकुन्द की रचना नहीं मानी गई है। बाद हुआ है, फिर अपभ्रंश की गाथाएँ रयणसार में कैसे आ ___इस ग्रन्थ को कुन्दकुन्दाचार्यकृत न मानने के कुछ | गईं। डॉ. लालबहादुर शास्त्री के शब्दों में इसकी भाषा स्खलित और भी कारण हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है- | है। इससे स्पष्ट है कि यह रचना कुन्दकुन्द के बहुत काल १. कुन्दकुन्द के सभी 'सार' ग्रंथों (प्रवचनसार, | बाद, जब अपभ्रंश का प्रयोग होने लगा होगा, अन्य किसी नियमसार और समयसार) पर संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हैं, | द्वारा लिखी जा कर कुन्दकुन्दाचार्य के नाम से प्रचारित की जब कि इसी तथाकथित 'सार' (रयणसार) की संस्कृत | गई होगी। टीका नहीं है। प्राचीनकाल में कुन्दकुन्द के उक्त तीनों ग्रंथ | १७ वी १८ वीं शताब्दी में अचानक इस ग्रन्थ का नाटकत्रयी के नाम से विख्यात हैं और यदि उनके सामने यह | प्रादुर्भाव कैसे हुआ, यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। 'रयणसार' उपलब्ध होता, तो नाटकत्रयी ही क्यों कहते? | यह ठीक है कि 'मोक्षमार्गप्रकाशक' में कुन्दकुन्द का नाम २. कुन्दकुन्दाचार्य से लेकर १७ वीं शताब्दी तक न | बिना दिए 'रयणसार' की एक गाथा उद्धृत की गई है। तो इसकी कोई हस्तलिखित प्रति मिलती है, न किसी भी | पाठकों को ध्यान रहे कि इस ग्रन्थ में अजैन ग्रन्थों के उद्धरण - जनवरी 2007 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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