Book Title: Jinabhashita 2006 11 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 19 हुआ प्रकाशित मैं छुपा, प्रभु हैं प्रकाश पुंज । हुआ सुवासित, महकते तुम पद विकास कुंज ॥ 20 निरे निरे जग-धर्म हैं, निरे-निरे जग कर्म । भले बुरे कुछ ना अरे! हरे, भरे हो नर्म ॥ 21 विषयों से क्यों खेलता, देता मन का साथ । बाँमी में क्या डालता? भूल कभी निज हाथ ॥ 22 खेत, क्षेत्र में भेद, इक-फलता पुण्या- पुण्य । क्षेत्र कर सबका भला, फलता सुख अक्षुण्ण ॥ 23 ऐसा आता भाव है, मन में बारम्बार । पर दुख को यदि ना मिटा सकता जीवन भार ॥ 24 पल-भर पर-दुख देख भी सकते ना जिनदेव । तभी दृष्टि आसीन है, नासा पर स्वयमेव । 11 25 सूखे परिसर देखते, भोजन करते आप। फिर भी खुद को समझते, दयामूर्ति निष्पाप ॥ 26 हाथ देख मत देख लो, मिला बाहुबल-पूर्ण । सदुपयोग बल का करो, सुख पाओ संपूर्ण ॥ 27 उगते अंकुर का दिखा, मुख सूरज की ओर। आत्मबोध हो तुरत ही, मुख संयम की ओर ॥ Jain Education International 28 दयारहित क्या धर्म है? दयारहित क्या सत्य ? दया रहित जीवन नहीं, जल बिन मीन असत्य ॥ 29 पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास । मृग- मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास ॥ 30 कूप बनो तालाब ना, नहीं कूप मंडूक । बरसाती मेंढक नहीं, बरसो घन बन मूक ॥ 31 अग्रभाग पर लोक के, जा रहते नित सिद्ध । जल में ना, जल पर रहे, घृत तो ज्ञात प्रसिद्ध ॥ 32 साधु, गृही सम ना रहे, स्वाश्रित-भाव समृद्ध । बालक-सम ना नाचते, मोदक खाते वृद्ध ॥ 33 तत्त्व-दृष्टि तज बुध नहीं, जाते जड़ की ओर । सौरभ तज मल पर दिखा, भ्रमर-भ्रमित कब और? ॥ 34 दया धर्म के कथन से, पूज्य बने ये छन्द । पापी तजते पाप हैं, दूग पा जाते अन्ध ॥ 35 सिद्ध बने बिन शुद्ध का, कभी न अनुभव होय । दुग्ध-पान से स्वाद क्या, घृत का सम्भव होय? ॥ 36 स्वर्ण बने वह कोयला, और कोयला स्वर्ण । पाप-पुण्य का खेल है, आतम में ना वर्ण ॥ For Private & Personal Use Only 'सर्वोदयशतक' से साभार www.jainelibrary.orgPage Navigation
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