Book Title: Jinabhashita 2006 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ प्रारंभिक प्राच्यविदों की जैन धर्म के इतिहास-विषयक भ्रान्तियाँ डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन आधुनिक युग में जैनधर्म का इतिहास प्रारंभिक | निकाल लिया कि “यहाँ सिंहपुर में ही इन श्वेतवसन यूरोपवासी प्राच्यविदों के हाथ का चिरकाल पर्यन्त खिलौना | साम्प्रदायिकों के आद्य गुरु ने बोधि प्राप्त की थी और अपने बना रहा। इसका एक कारण यह रहा कि जैनधर्म और द्वारा आविष्कृत मत का प्रथम उपदेश दिया था।''2 सुदूर उसकी संस्कृति का अध्ययन करने के बहुत पूर्व ही वे लोग | चीन देश से आये सातवीं शती ईस्वी के इस बौद्ध तीर्थयात्री बौद्धधर्म का पूरी तरह, और हिन्दू (ब्राह्मण) धर्म की परम्परा | के उपरोक्त अस्पष्ट एवं चलतऊ कथन पर से उसके यात्राका भी पर्याप्त अध्ययन कर चुके थे। दूसरे, जैनधर्मविषयक | वृतांत के प्रसिद्ध आंग्ल अनुवादक टामस वाटर्स ने तथा जानकारी प्राप्त करने के लिए जो जैन पुस्तकें उन्हें प्रारंभ में | उसकी पुस्तक के सम्पादकों ने यह प्रतिपादित कर दिया कि उपलब्ध भी हुईं, वे नितांत अपर्याप्त, सदोष, सन्दिग्ध कोटि | "इस चीन यात्री के मतानुसार जैन-धर्म बौद्ध धर्म का परवर्ती की और अविश्वसनीय थीं। ब्राह्मण पंडितों ने भी साम्प्रदायिक | है और मुख्यतया उसी में से निकला विद्वेषवश जैनधर्म को समझने में उनकी कोई सहायता नहीं आश्चर्य की बात यह है कि यही चीनी यात्री अपने की। परिणाम यह हुआ कि वे प्राच्यविद् जैनधर्म को | वृत्तांत में अनेक स्थलों पर कियापिशि (कैप्सिया या काबुल) उत्तरकालीन बौद्धधर्म की एक शाखा अथवा विरोधस्वरूप | से लेकर कुमारी अन्तरीप और बंगाल एवं उड़ीसा से लेकर उससे कटकर अलग हुआ उसका एक सम्प्रदाय मात्र मान | पश्चिमी समुद्रतट पर्यन्त अपनी यात्रा में प्रायः सर्वत्र मिले बैठे। इस प्रकार कई दशकों पर्यन्त जैनधर्म की वास्तविक जिन प्राचीन निर्ग्रन्थों (लि. हि. अर्थात् निर्गन्थ परम्परा के ऐतिहासिक स्थिति अन्धकाराच्छन्न बनी रही। सुप्रसिद्ध जर्मन | दिगम्बर मुनियों) की, उनके देव मंदिरों की, अधिष्ठानों की प्राच्यविद् डॉ. हर्मन जैकोवी ने, गत शताब्दी के अन्त के और उनके अनुयायी नरेशों एवं जन-समुदायों की विद्यमानता लगभग, यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया था कि “हम का स्पष्ट उल्लेख करता है। उनका समीकरण तो उक्त लोग जैनधर्मविषयक वस्तुस्थिति की अभी हाल में ही ठीक- विद्वानों ने जैनों के साथ किया नहीं, और उसके द्वारा उल्लेखित ठीक समझ पाये हैं। उसके पूर्व यह विश्वास किया जाता था 'सिंहपुर के श्वेतवसन हेरेटिक्स' को ही वे तत्कालीन जैनों के कि वह बौद्धधर्म की ही एक शाखा है। कारण यह था कि एकमात्र प्रतिनिधि मान बैठे। उस समय पाश्चात्य विद्वान् बद्ध और बौद्धधर्म से भली संभवतया प्रोफेसर होरेस विल्सन ही वह विद्वान् था, भाँति परिचित हो चुके थे और क्योंकि उसकी जन्मभूमि जिसने उपर्युक्त लचर आधार को लेकर इस मत का सर्वप्रथम भारतवर्ष के बाहर अनेक एशियाई देश उस धर्म के अनुयायी प्रतिपादन किया कि जैनधर्म बौद्धधर्म की ही एक शाखा है, हैं, स्वभावतः उसे ही अन्य सदृश धर्मों का जनक मान जो सातवीं शती ई. में उस समय उदय में आई जबकि स्वयं लिया गया, और लगता था कि जैनधर्म भी उन्हीं में से एक बौद्धधर्म इस देश में द्रुतवेग से तिरोहित हो रहा था। -लेसन, बार्थ, हन्टर, वेबर तथा अन्य अनेक विद्वानों ने इस मत का जैन-धर्म को बौद्ध-धर्म की शाखा मान लेने पर यह अनुकरण किया। उनमें से कई ने तो यह भी स्पष्टतया प्रश्न उपस्थित हआ कि वह मूल (बौद्ध) धर्म से कब | स्वीकार किया कि जैनधर्म के सम्बन्ध में उनकी जानकारी पृथक होकर उदय में आया? इस प्रश्न का समाधान भी | अभी भी अपर्याप्त एवं अपर्ण थी उस मत के प्रभत प्रचार चीनी पर्यटक युवांनच्चांग (629-645 ई.) के यात्रा-वृत्तांत | का श्रेय सर रोपर लेथब्रिज की पुस्तक 'हिस्टरी ऑफ इंडिया' में सहज ही प्राप्त कर लिया गया। उत्तर भारत की अपनी | को है। इन प्रारम्भिक इतिहासकारों में से एलफिन्स्टन प्रभृति यात्रा में यह चीनी भिक्षु पंजाब में स्थित सिंहपुर नामक स्थान कई एक ने तो जैनधर्म के पूरे इतिहास को केवल पाँच में भी पहुँचा था, जहाँ संभवतया श्वेताम्बर जैन यतियों का | शताब्दियों के भीतर ही सीमित कर दिया, और कह डाला एक अधिष्ठान विद्यमान था। उनकी वेषभूषा, रहन-सहन | कि सातवीं शती ई. में इस धर्म का उदय हुआ, आठवींऔर आचार-विचार में अपने भारतीय सहधर्मियों (बौद्धों) नौवीं में इसका प्रचार और फैलाव हुआ, दसवीं शती में यह के साथ बाह्य साम्य लक्ष्य करके युवानच्वांग ने यह निष्कर्ष | अपनी उन्नति के चरम शिखर पर पहुँच गया, ग्यारवीं 4 अगस्त 2006 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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