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जिज्ञासा-सामाधान
पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता - नमन कुमार गोधा, जयपुर।
पूर्वकोटि मात्र भवस्थिति तक संयम का परिपालन करते हुए जिज्ञासा - क्या ऋद्धिधारी मुनि एक साथ अनेक रूप जो थोड़ी सी आयु के शेष रह जाने पर क्षपणा में उद्यत धारण कर सकते हैं ?
होकर अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ-क्षीणकषाय गुणस्थान के समाधान - जो कामरूपित्व नामक ऋद्धि के धारक
अन्तिम समय को प्राप्त हुआ है, वह क्षपितकर्मांशक कहलाता मुनिराज होते हैं, वे एक साथ अनेक रूप बनाने की शक्ति को रखते हैं। कामरूपित्व ऋद्धि की परिभाषा शास्त्रों में इस
जिज्ञासा - वर्तमान में पद्मावती देवी की बहुत सारी प्रकार कही गई हैं -
मर्तियाँ निर्मित हई हैं. जिनमें पद्मावती देवी के मस्तक पर
भ. पार्श्वनाथ विराजमान हैं। तो क्या वास्तव में पद्मावती देवी ने तिलोयपण्णत्ति 4/1032 में इस प्रकार कहा है -
भ. पार्श्वनाथ को उपसर्ग केसमय अपने मस्तक पर उठाया था ? "जुगवं बहुरूवाणि जं विरयदि कामरूवरिद्धी सा।"
अथवा ये मूर्तियाँ काल्पनिक हैं ? अर्थ - जो एक साथ अनेक रूपों की रचना करती है,
समाधान - भ. पार्श्वनाथ का प्राचीनतम जीवन-चरित्रवह कामरूपित्व नाम की ऋद्धि है।
वर्णन उत्तर-पुराण से प्राप्त होता है। उत्तरपुराण सर्ग-73, पृ. तत्वार्थवार्तिक 3/36 में इस प्रकार कहा है - 438 पर इस प्रकार कहा गया है - "तदनन्तर जिस वन में
"युगपदनेकाकाररूपविकरणशक्तिः काय-रूपित्व- दीक्षा ली थी उसी वन में जाकर तीर्थंकर पार्श्वनाथ देवदारु मिति।"
नामक एक बड़े वृक्ष के नीचे विराजमान हुए। --- वे सात अर्थ - एक साथ अनेक आकारवाले रूप बनाने की
दिन का योग लेकर धर्मध्यान को बढाते हुए विराजमान थे। शक्ति को कामरूपित्व ऋद्धि कहते हैं।
इसी समय कमठ का जीव संवर नाम का असुर आकाश जिज्ञासा - क्षपितकर्माशिक किसे कहते हैं ?
मार्ग से जा रहा था कि अकस्मात् उसका विमान रुक गया।
जब उसने विभंगावधि ज्ञान से इसका कारण देखा, तो उसे समाधान - श्रीधवला पु. 10, पृ. 268 पर क्षपित
अपने पूर्व भव का सब बैर-बंधन स्पष्ट दिखने लगा। फिर कौशिक का स्वरूप इस प्रकार कहा है-"जो जीवो
क्या था, क्रोधवश उसने महागर्जना की, और महावृष्टि करना सुहमनिगोदजीवेसु --- जहण्णा।"
शुरू कर दिया। इस प्रकार यमराज के समान अतिशय दुष्ट ___ अर्थ - जो जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग से
उस दुर्बुद्धि ने सात दिन तक लगातार भिन्न-भिन्न प्रकार के हीन कर्मस्थितिकाल (70 कोड़ाकोड़ि सा.) तक सूक्ष्म निगोद | महाउपसर्ग किये। यहाँ तक कि छोटे-मोटे पहाड़ तक लाकर जीवों में रहकर अपर्याप्त व पर्याप्त भवों को यथाक्रम से
उनके समीप गिराए। (134-138)। अवधिज्ञान से यह उपसर्ग अधिक व अल्प ग्रहण करता रहा है । इस प्रकार से परिभ्रमण | जानकर धरणेन्द्र अपनी पत्नी के साथ पथ्वीतल से बाहर करता हुआ वहाँ से निकलकर क्रम से बादर पृथिवीकायिक | निकला. उस समय वह धरणेन्द्र, जिस पर रत्न चमक रहे पर्याप्त, पूर्वकोटि प्रमाण आयु वाले मनुष्य, दस हजार वर्ष हैं,ऐसे फणारूपी मण्डप से सुशोभित था। धरणेन्द्र ने भगवान की आयु वाले देव, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद को सब ओर से घेरकर अपने फणाओं के ऊपर उठा लिया जीव पर्याप्त और बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, इन जीवों में | और उसकी पत्नी वज्रमय छत्र तानकर खड़ी हो गई।( 139उत्पन्न होकर यथायोग्य सम्यक्त्व व मिथ्यात्व आदि को
आदि का | 140)। प्राप्त होता रहा। इस प्रकार नाना भवों में परिभ्रमण करता उपर्युक्त आगमप्रकरण से यह स्पष्ट होता है कि भ. हुआ आठ संयमकांडकों का पालन कर, चार बार कषायों | पार्श्वनाथ को धरणेन्द्र ने अपने फणाओं के ऊपर उठाया को उपशमाकर और पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र | था। उसकी पत्नी ने तो भगवान के ऊपर वज्रमय छत्र ताना संयमासंयमकाण्डक व सम्यक्त्वकाण्डकों का परिपालन कर | | था। भ. पार्श्वनाथ की जो प्राचीन मूर्तियाँ छठी शताब्दी से अन्त में फिर से भी जो पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न | दशवीं शताब्दी तक की प्राप्त होती हैं, उनमें भी धरणेन्द्र की हुआ व वहाँ सबसे अल्पकाल में योनिनिष्क्रमणरूप जन्म से | पत्नी को छत्र तानते हए ही दिखाया गया है। इन प्रकरणों से आठ वर्ष का होकर संयम को प्राप्त हुआ। वहाँ कुछ कम | स्पष्ट होता है कि पद्मावती द्वारा (उत्तरपुराणकार ने धरणेन्द्र
अगस्त 2006 जिनभाषित 23
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