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श्री सुमति स्तवन
(द्रुतविलम्बित छन्द)
1
गगन-सा तव जीवन स्वच्छ है। दुरित बादल ना लवलेश है ॥ परम भास्कर तो द्युतिमान है। सुमतिनाथ सु नाम यथार्थ है ॥
2
परम ज्योति सदा जयवन्त ये । मुकुर-सा झलके सब वस्तु ये ॥ यह अकम्प शिखा अविनाशनी । अघ - विनाशक शान्ति प्रदायनी ॥
3
रसभरी तव दिव्य-ध्वनी खिरी। अमृत की घनघोर घटा झरी ॥ वह तृषा सब की हरती रही। सहज ही सब तन्मय हो रही ॥
4
युगल पादसरोज प्रणाम है । मुकुट-बद्ध सुरासुर गा रहे ॥ जगत्रयी सुख वैभव पाद है। जलज सा जल से तुम भिन्न है ॥
5
सतत वन्दन उत्तम भाव से । सुमति हो मम बुद्धि विशुद्ध से ॥ जगत-तारक कर्म निवारिये । भ्रमण में बहु काल बिता दिये ॥
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203-203-20-203
● मुनि श्री योगसागर जी
श्री पद्मप्रभ स्तवन
(वसन्ततिलका छन्द)
1
ज्यों पद्मराग मणि-सा गाए चारू । सौंदर्यपूर्ण नवजीवन को निहारूं ॥ निर्ग्रन्थ रूप शिवमार्ग दिखा रहा है। संसार-तारक जहाज यही रहा है ॥
2
ज्यों पद्मपंकज सरोवर में खिले हैं। आमोद से भ्रमर के दल आ रहे हैं । त्यों पद्म तीर्थंकर धर्म प्रभावकारी । भव्यात्म के दल समूह प्रसन्नकारी ॥
3
त्रैलोक्य पूज्य परमोत्तम ज्ञानसूर्य । है निर्विकल्प विमलेश अनन्तवीर्य ॥ आल्हाद अक्षय अनन्त अपूर्व शान्ति । है कोटि चन्द्र रवि से द्युतिमान कान्ति ॥
4
मैं पंच पाप करके बहु दुःख पाया । अज्ञान से स्वयम् संसृति में गिराया ॥ सौभाग्य का उदय है तब दर्श पाया। मेरा अनादि अघ का अब अन्त आया ॥
5
तारे भले विपुल हो तम ना मिटायें। त्यों धर्म भी विविध है शिव ना दिलाये ॥ ये वीतराग धर्म यथार्थता है । ये स्वर्ग मोक्ष भवदुःख निवारता है ॥
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प्रस्तुति - रतनचन्द्र जैन
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