Book Title: Jinabhashita 2005 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 8
________________ अपनी योग्यताएँ अर्जित करने लगें तो कोई शक्ति नहीं जो में कभी भी कोई व्यक्ति मुक्त नहीं हो सकता। वह सदा आपको लक्ष्य तक न ले जाये। त्रस्त, दुःखी तथा असंतुष्ट ही रहेगा। पर-निर्भरता संसार का सफलता के अग्रदूत सबसे बड़ा अभिशाप है। भारतीय संस्कृति के प्राण श्रमण साधु सन्तों का जीवन यद्यपि श्रावकाधीन अथवा अनुयायियों अपनी आत्मा को बाह्य परिस्थितियों का निर्माता - के आश्रित होता है परन्तु वे सिंह की भांति स्वावलम्बी होते केन्द्र बिन्दु मानिये। जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उनकी हैं। यदि उनमें पूर्ण स्वावलम्बन और शक्ति-उद्घाटन की प्रिय-अप्रिय अनुभूति का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लीजिए। क्षमताएं जीवन्त न हों तो क्या वे संन्यास ले सकते हैं? आगम अपने को जैसा चाहे वैसा बना लेने की योग्यता अपने में अध्यात्म की सम्प्राप्ति उन्हें हो सकती है? क्या परावलम्बी समझिये। अपने ऊपर विश्वास कीजिए। किसी और का कभी किसी को स्वावलम्बन की डगर सुझा पायेगा? पोखर आसरा मत देखिये। बिना आपके निजी प्रयत्न के योग्यता की दलदल में स्नान करने वाला गंगासागर में स्नान करने संपादन के बाहरी सहायता प्राप्त न होगी। यदि होगी तो वालों को क्या उपदेश दे सकेगा? जो मुहल्ले में ही भटक उसका लाभ बहुत थोड़े समय में समाप्त हो जाएगा और जाता है वह संसार यात्रा के लिए क्या किसी का पथपुनः वही दशा उपस्थित होगी जो पूर्व में थी। उत्साह, लगन, प्रदर्शक बनने में बेहिचक तैयार हो सकेगा? गहरा गड्डा दृढ़ता, साहस, धैर्य और परिश्रम इन छ: गुणों को सफलता हिमालय की ऊँचाई से क्या यह कह सकेगा कि अभी कुछ का अग्रदूत माना गया है। इन दूतों का निवास स्थान नहीं है, बहुत नीचे हो, जरा और उठो? यदि नहीं, तो फिर आत्मविश्वास में है। अपने ऊपर भरोसा करेंगे तो ये गुण जिनका जीवन परावलम्बन पर आश्रित होगा, क्या वे दूसरों उत्पन्न होंगे। को स्वावलम्बन जीवन जीने की हिदायतें दे सकेंगे? हाँ, __'उद्धरेत् आत्मनात्मानम्' की शिक्षा देते हुए गीता ने इसीलिए श्रमण योगी पुरुष किसी की अपेक्षा किये बिना स्पष्ट कर दिया है कि यदि अपना उत्थान चाहते हो तो अध्यात्म की यात्रा अबाधित रूप से बरकरार रखते हुए उसका प्रयत्न स्वयं करो। जैसे अपने पेट के पचाये बिना दूसरों के दिग्दर्शन बन वर्तमान में निरपेक्ष जीते हैं, उन्हें न अन्न हजम नहीं हो सकता। जैसे अपनी आंखों के बिना भत की स्मति होती है और न अनागत का ख्याल। जिसे रूदृश्य दिखाई नहीं पड सकता. उसी प्रकार अपने प्रयत्न ब-रू देखा है अध्यात्म के शिखर आचार्य कन्दकन्द में। बिना उन्नत-अवस्था को भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। - प्राप्त नहा किया जा सकता हा उनके शब्द हैंपरावलम्बन बनाम पराधीनता - उप्पण्णोदयभोगे वियोगबद्धीय तस्स सो णिच्चं। . आत्मविश्वासी; आत्मनिर्भर भी होता है। आत्मनिर्भर कंखामणागदस्सय उदयस्सणकव्वदेणाणी॥ व्यक्ति कभी बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ नहीं बनाता। वह केवल -समयसार उतना ही सोचता है, जितना उसे करना होता है, और जितना ऐसा ही योग्यता सम्पन्न स्वावलम्बी व्यक्ति सर्वत्र कर सकने की उसमें शक्ति होती है। जबकि पर-निर्भर अभिनन्दनीय, अभिवन्दनीय, अनुकरणीय एवं श्लाघनीय व्यक्ति की सहज कमजोरी यही होती है कि वह दूसरों के होता है। इन महापुरुषों का अभिनन्दन वाणी, शब्दों एवं भरोसे जीवन में बड़े-बड़े लक्ष्य निर्धारित कर लेता है एवं प्रशस्ति पत्रों से नहीं होता, उनका सच्चा अभिनन्दन भक्ति शिष्टाचारिक आश्वासन में भी वह अखण्ड विश्वास करने और अनुकरण से होता है। लगता है। दर-असल आत्मनिर्भरता के अभाव में मनुष्य वस्तुतः जो आत्मनिर्भर है, आत्मविश्वासी तथा आत्मजब दूसरों के सहारे चलने की भावना का शिकार हो जाता है निर्णायक है, जिसके पास अप तो संसार में हर व्यक्ति उसे शक्तिवान तथा मित्र मालूम होता है, उसका ही जीवन सफल और संतुष्ट होता है। स्वावलम्बी है और तब उसका विश्वास उसके प्रति स्थायी हो जाता है। दूसरों पर आश्रित नहीं रहता। आत्मनिर्भर व्यक्ति का लक्ष्य __यही कारण है कि परावलम्बी व्यक्ति आजीवन दुःखी उसकी गति के साथ स्वयं उसकी ओर खिंचता चला जाता एवं दरिद्र बना रहता है। जो दूसरों के सहारे जीना चाहेगा है। आत्मनिर्भर व्यक्ति के लिए समय के साथ अपनी शक्ति उसे दयनीय जीवन बिताना ही होगा। परावलम्बन का दूसरा के भरोसे से प्रारम्भ किया हुआ काम ठीक उसी प्रकार फल नाम पराधीनता है- 'पराधीन सपने हु सुख नाहीं' वाली दशा लाता है, जिस प्रकार बोया हुआ बीज फलीभूत होता है। 6 दिसम्बर 2005 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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