Book Title: Jinabhashita 2005 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ कितना ही कष्ट और कठिनाई क्यों न उठानी पड़े। जब मनुष्य आत्मनिर्भरता के वीरतापूर्ण दृष्टिकोण को किसी भी क्षेत्र अथवा विषय में उन्नति क्यों न करनी छोड़कर पराया मुंह ताकने की कायरता, क्लीवता और हीनता हो, कोई भी लक्ष्य क्यों न पाना हो. स्वावलम्बी बने बिना का अधकारमयो भूमिका में उतरता है तो वह बडे टीन उसमें सफलता नहीं मिल सकती। दूसरों की शक्तियों, साधनों वचन बोलने लगता है एवं दूसरों से अपेक्षाएं रखने लगता और परिस्थितियों पर अपना जीवन लक्ष्य निर्भर कर देते है। वस्तुत: सारी समस्याओं को सुलझाने की कुंजी अपने वाले प्रायः असफल होते हैं। अन्दर है। दूसरे लोगों से जिस बात की आशा करते हैं, उसकी योग्यता अपने अन्दर पैदा कीजिए। ऐसा करने पर परावलम्बी : पृथ्वी का बोझ आप पायेंगे कि बिना सहायता माँगे अनायास ही आपकी परावलम्बी व्यक्ति न केवल अपने लिए ही समस्या वह इच्छाएं पूरी होने लगेंगी। जरूरत है तो सिर्फ दृढ़ है बल्कि दूसरों के लिए भी समस्या और उलझन बनता इच्छाशक्ति की। रहता है। साधारण-सी कठिनाईयों और कामों के लिए दूसरों के लिए दूसरा आत्मनिर्भरता : योग्यता का पुरस्कार के पास जाकर खड़ा हो जाता है और सहायता/सहयोग की याचना करने लगता है। कोई भी लक्ष्यनिष्ठ व्यक्ति उसकी आत्मनिर्भरता मात्र विचार करने से नहीं आती बल्कि इस याचना से असमंजस में पड़ जाता है। यदि वह उसके । उसके लिए प्रयत्न भी करने पड़ते हैं तथा प्रयत्नों को विचारों नगण्य से काम के लिए अपना बहुमूल्य समय देता है तो के अनुरूप ढालने की कोशिश भी करनी पड़ती है। जैसे अपनी उन्नति की स्पर्धा में दो कदम पीछे रह जाता है और कि आप नहीं चाहते हैं कि बीमारी आपको सताये, तो आप यदि इंकार करता है तो मानवीय उदारता पर आंच आती है। स्वास्थ्य के नियमों पर दृढ़ता पूर्वक चलना आरम्भ कर बहुत बार तो उसे अपनी हानि कर उसके काम में वक्त देना दीजिए। यदि आप चाहते हैं कि ऐश-आराम उड़ावें; तो धन होता है और बहुत बार मजबूरी बताकर मानसिक वेदना कमाना आरम्भ कर दीजिए। आप चाहते हैं कि आपके भी सहनी पड़ती है। ऐसे परमुखापेक्षी और परावलम्बी व्यक्ति बहुत से मित्र हों, तो आप अपना स्वभाव आकर्षक बनाइये। वास्तव में धरती पर भार के सिवाय और कछ नहीं होते। आप चाहते हैं कि लोग आपका लोहा माने. तो शक्ति संपादन कीजिए। आप चाहते हैं कि प्रतिष्ठा प्राप्त हो; तो प्रतिष्ठा के परावलम्बन बड़ी हीन, हानिकारक और लज्जास्पद योग्य कार्य कीजिए। आप चाहते हैं कि ऊँचा पद प्राप्त हो तो वत्ति है। हर स्वाभिमानी व्यक्ति को इसका त्याग कर देना उसके योग्य गणों को एकत्रित कीजिए। और यदि आप धन. चाहिए। स्वावलम्बन और आत्मनिर्भरता एक बड़ी उदात्त १ ० बुद्धि, बल, विद्या चाहते हैं तो परिश्रम और उत्साह उत्पन्न और आदर्श वृत्ति है। हर प्रयत्न आर पुरुषाथ के मूल्य पर करिये। जब तक अपने भीतर वे गण नहीं हैं जिनके द्वारा इसे विकसित करना ही चाहिए। परावलम्बन मनुष्य को मनोवाडाऐं परी हुआ करती हैं. तब तक यह आशा रखना मानसिक दुर्बलता है जो उचित नहीं है। पुरुष को पुरुषार्थ ही । । व्यर्थ है कि आप सफल मनोरथी हो जावेंगे। शोभा देता है। उसे हर प्रकार से अपने हर क्षेत्र में स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनना चाहिए और संसार में चल रही सफल मनोरथ के लिए बाहर की शक्तियाँ भी सहायता भौतिक अथवा आध्यात्मिक, किसी भी प्रतियोगिता को किया करती हैं, पर करती उन्हीं की हैं जो उसके पात्र हैं। अंगीकार कर विजयश्री वरण करनी ही चाहिए। इस संसार में अधिक योग्य को महत्व देने का नियम सदा से चला आया है। संसार में सुयोग्य व्यक्तियों को सब प्रकार ऐसा नहीं है कि प्रत्येक समस्या या गुत्थी को सुलझाने सहायता मिलती है। माली अपने बाग में तन्दुरुस्त पौधों को में व्यक्ति स्वयं समर्थ होता है। कभी-कभी दूसरों की सहायता खुब हिफाजल करता है और जो कमजोर होते हैं उन्हें उखाड भी लेनी पड़ती है। दूसरों से सहायता अवश्य लीजिए परन्तु कर उसकी जगह पर दूसरा बलवान पौधा लगा देता है। इसी उन पर अवलम्बित मत रहिए। अपने पैरों पर खड़े होकर प्रकार ईश्वर की सहायता भी सुयोग्यों को ही मिलती है। अपनी समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न कीजिए। जब संसार में सफलता, लाभ की आकांक्षा के साथ अपनी योग्यता आत्मविश्वास के साथ सुयोग्य मार्ग की तलाश करेंगे तो वह में वृद्धि करना भी आरम्भ कीजिए। यदि आप आत्मनिर्भर किसी न किसी प्रकार मिल कर ही रहेगा। हो जावें एवं आप जैसा होना चाहते हैं, उसके अनुरूप -दिसम्बर 2005 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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