Book Title: Jinabhashita 2005 12 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 6
________________ योग्यता का अभिनन्दन : स्वावलम्बन उपाध्याय श्री गुप्तिसागर मुनि अपने ऊपर विश्वास करना; अपनी शक्तियों पर कृपा से भी आत्म प्रकाश की किरणें मिल जाती हैं, किन्तु विश्वास करना; एक ऐसा दिव्य गुण है, जो हर कार्य को इस कृपा के लिए पुनः आत्मनिर्भरता पर आना होगा। गुरु करने योग्य साहस, विचार एवं योग्यता उत्पन्न करता है। अथवा ज्ञानी पुरुष को प्रसन्न करने के लिए जिस सेवा और दूसरों के ऊपर निर्भर रहने से अपना बल घटता है और परिचर्या की आवश्यकता होती है वह तो अपने किए ही पूरी इच्छाओं की पूर्ति में अनेक बाधाएं उपस्थित होती हैं। हो सकती है। कोई बदले में सेवा करके गुरुजनों की प्रसन्नता स्वाधीनता, निर्भयता और प्रतिष्ठा इस बात में है कि अपने किसी दूसरे के लिए सम्पादित नहीं कर सकता। ऊपर निर्भर रहा जाए; सफलता का सच्चा और सीधा पथ उत्साह आवश्यक भी यही है। क्षेत्र और विषय कोई भी क्यों न हो, उसमें उन्नति के यह संसार प्रतियोगिता का रंग स्थल है। यहां पर जो लिये आत्मनिर्भरता का गण विकसित करना ही होगा। विजयी होता है. वही पुरस्कृत किया जाता है। जो अपनी परावलम्बी प्रवत्ति से किसी प्रकार की उन्नति नहीं की जा योग्यता और पात्रता का प्रमाण देता है, विजयश्री वही वरण सकती। आत्मविश्वास योग्यता, क्षमता. साहस और उत्साह करता है। अयोग्य, आलसियों और परावलम्बियों के लिए आदि ऐसे गण हैं जो जीवन को उन्नति के शिखर पर ले इस संघर्ष भूमि में कोई स्थान नहीं है। जाने के लिए न केवल उपयोगी ही हैं, बल्कि अनिवार्य भी पुरुषार्थ का सहारा हैं। जिसमें आत्मविश्वास की कमी होगी वह किसी पथ पर यदि जीवन में कुछ बनने की इच्छा है तो स्वयं बढ़ा बढने की कल्पना ही नहीं कर सकता। वह तो यथा-स्थिति को ही गनीमत समझकर चुपचाप अपना जीवन कट जाने में अपने पुरुषार्थ का ही सहारा लेना होगा। यह सोचना गलत होगा कि कोई दूसरा कृपा करके कोई ऐसा मार्ग प्रशस्त कर ही कल्याण समझेगा। जो कर्त्तव्य के प्रशस्त पथ पर चलेगा ही नहीं, जिसे यह विश्वास ही न होगा कि वह भी उन्नति देगा जो इच्छित लक्ष्य की ओर जाता हो। यह सच है कि उन्नति करने के लिए समाज की सहायता एवं सहयोग की कर सकता है, आगे बढ़ सकता है, उन्नति और प्रगति आवश्यकता होती है, किन्तु इस आवश्यकता की पर्ति यों उसके लिए असंभव ही नहीं रहेगी। ही अनायास नहीं हो जाती। उसके लिए योग्यता और पात्रता जिनमें उत्साह नहीं, वे जीवन-पथ पर आई एक ही का प्रमाण देना नितान्त आवश्यक है, जिसको पाने के लिए असफलता से निराश होकर बैठ जायेंगे। एक ही आघात में फिर भी स्वयं अपने आप पुरुषार्थ करना होगा। जो लोग उनके उन्नति और विकास के सारे स्वप्न चकनाचूर हो अपना स्वतन्त्र पुरूषार्थ न करके अपना श्रम और योग्यता जायेंगे। निश्चय ही उन्नति और प्रगति में उत्साह का बहुत दसरों के हाथ बेच देते हैं वे कदाचित ही आत्मनिर्भर बन महत्व है। उत्साह से वंचित हआ व्यक्ति साधारण काम भी पाते हैं। सफलता पूर्वक नहीं कर सकता, तब कोई ऊँचा लक्ष्य तो भौतिक उन्नति की तरह आध्यात्मिक लक्ष्य की बहुत दूर की बात है। प्राप्ति भी आत्मनिर्भरता पर ही निर्भर है। इस विषय में श्रेष्ठ स्वावलम्बन अथवा आत्मनिर्भरता के पवित्र व्रत और सिद्ध पुरुषों से निर्देश तथा पथ दर्शन तो पाया जा पालन से उन्नति और विकास के सारे द्वार खुल जाते हैं। सकता है, लेकिन उसकी साधना स्वयं ही करनी होती है। जिसने आत्मनिर्भरता का व्रत लिया है वह इस लज्जा से कि आत्मविश्वास के सम्बन्ध में किसी दूसरे की साधना अपने कहीं किसी विषय में परमुखापेक्षी होकर उसका व्रत भंग न काम नहीं आ सकती। आत्म साधना में जिस संयम-नियम- हो जाए, स्वयं प्रयत्नपूर्वक अपने अन्दर की सारी कमियां व्रत-उपवास, अनुष्ठान और तपस्या की आवश्यकता होती दूर करता रहेगा। दूसरे का मुख देखने या हाथ पसारने के है, उसका साधन स्वयं अपने आप ही करना होगा, तभी बजाय स्वाभिमानी व्यक्ति अपनी सारी कमियों को दूर करने उनका यथार्थ लाभ प्राप्त हो सकता। यदा-कदा गुरुजनों की का कोई प्रयत्न नहीं छोड़ेगा। चाहे फिर इसके लिए उसे -दिसम्बर 2005 जिनभाषित 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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