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पाणिपात्रं मिलत्येतच्छक्तिश्च स्थिति भोजने । यावत्तावदहं भुजे रहाम्याहारमन्यथा ॥ - 'तीसरा काव्य'
मूलाचार संस्कृत पृष्ठ 44, अनगार धर्मामृत संस्कृत पृष्ठ 682, आचारसार पंचमोधिकार श्लोक 122 में भी मुनि के स्थिति भोजन में यही कारण बताया गया है।
पाठक समझ गये होंगे कि मुनि जो खड़े आहार लेते हैं उसमें कितनी भीषण प्रतिज्ञा है । ऐसे कठिन अनुष्ठान के लिये श्रावक को अयोग्य समझकर ही ग्रन्थों में 11वीं प्रतिमाधारी के लिए बैठे भोजन की आज्ञा प्रदान की गई है और इसी आधार पर शायद भूधरदास जी ने पार्श्वपुराण में ऐलक के लिये अंजुली जोड़कर भोजन करने का भी उल्लेख नहीं किया मालूम होता है। जो ऐलक कौपीन मात्र को नहीं त्याग सकता उसमें इतना साहस कहाँ से आ सकता है? और इसीलिये उसके आतापनादि योगों का भी निषेध शास्त्रों में किया गया जान पड़ता है। खुद पं. वामदेव ने भावसंग्रह में 11वीं प्रतिमा वाले के वीरचर्या न होने का कारण कौपीन मात्र परिग्रह बतलाया है। यह वाक्य इस प्रकार है
'वीरचर्या न तस्यास्ति वस्त्रखंड परिग्रहात्' । 548 ।
सोचने की बात है अगर ऊँची क्रिया के बहाने शास्त्रविरुद्ध प्रवृत्ति की जायेगी तो आर्यिका, क्षुल्लक व ब्रह्मचारीगण भी खड़े भोजन करना प्रारम्भ कर देंगे फिर उन्हें कैसे रोका जाएगा। अत: शास्त्रानुसार प्रवृत्ति करने में ही सबका हित है इसी से त्यागी वर्ग में अनुशासन बना रहेगा, अन्यथा स्वछन्दता फैल जायेगी। अगर ऐलक शुद्ध मन से ऊँची क्रिया पालने की भावना रखते हैं तो साहस करके
लंगोटी छोड़ दें फिर उन्हें कोई खड़े भोजन से रोकने वाला नहीं मिलेगा ।
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इसप्रकार इस विषय में जितना भी विचार किया जाता है किसी भी तरह ऐलक के लिये खड़ा भोजन सिद्ध नहीं होता । इस विषय के सभी संस्कृत, प्राकृत के उपलब्ध ग्रन्थ देखे गये उनमें कोई एक भी ऐलक को खड़े आहार की आज्ञा नहीं देता और किसी में भी यह लिखा नहीं मिलता कि ऐलक के वास्ते पर्वतिथियों में प्रोषधोपवास करने का नियम नहीं है । इतना विवेचन किये बाद भी यदि किसी अर्वाचीन मामूली ग्रन्थ में इसके विरुद्ध लिखा मिल जावे तो वह प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि आधुनिक किसी भी ग्रन्थ का कोई भी शास्त्रीय विधान तब तक मान्य नहीं हो सकता जब तक कि उसका समर्थन पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों से न होता हो। मुझे उस वक्त बड़ा आश्चर्य होता है, जब मैं वर्तमान के कुछ पण्डितों की लिखी हुई छोटी-मोटी पुस्तकों में ऐलक के लिए खड़ा भोजन का कथन पढ़ता हूँ। बगैर शास्त्रों के देखे यों ही किसी सुनी सुनायी बात को शास्त्र का रूप दे बहुत ही बुरा है ऐसी पद्धति पण्डितों को शोभा नहीं
देना
देती ।
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सज्जन मनुष्य पाप से उत्पन्न हुए दुःख को देखकर उस पाप का परित्याग करते हैं । धर्म और अधर्म के फल को प्रत्यक्ष में जानकर विवेकी जीव सब प्रकार से अधर्म का परित्याग करते हुए निरन्तर धर्म किया करते हैं ।
सज्जन मनुष्य धर्म कार्य में अनर्थ के कारणभूत आलस को कभी नहीं किया करते हैं। विद्वान मनुष्य मित्र उसी को बतलाते हैं, जो यहाँ उसे हितकारक पवित्र धर्म में प्रवृत्त
16 दिसम्बर 2005 जिनभाषित
ऐलक मुनियों की बराबरी करने के लिये पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में आज्ञा न होते भी खड़ा भोजन करता है और पर्व तिथियों में उपवास नहीं करता वह शास्त्र विहित चर्या नहीं करता है । उसकी इस प्रवृत्ति का विचारशील शास्त्रवेत्ताओं को पर्याप्त विरोध करना चाहिये। विज्ञजनों की उपेक्षावृत्ति से ही शास्त्र विरुद्ध रीतियों का जन्म होता है । इति । 'जैन निबन्ध रत्नावली' से साभार
Δ जो जीव क्षमा के आश्रय से क्रोध को, मृदुता के आश्रय से मान को, ऋजुता के आश्रय से माया को तथा संतोष के आश्रय से लोभ को नष्ट कर देता है, उसके ही धर्म रहता है।
मुनि श्री अजितसागर- कृत 'वीरदेशना' से साभारे
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