Book Title: Jinabhashita 2005 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ को जैन समुदाय को जैनधर्म को स्वतन्त्र मानते हुये सिफारिश पारसियों की भांति जैनियों का नाम भी जोड़ देना चाहिये। की कि जैनों को अल्पसंख्यक घोषित किया जाये। 17.12.96 केन्द्र सरकार को न्यायालय के निर्देशों की आवश्यकता ही को पुनर्गठन होने के बाद आयोग के अध्यक्ष ने पुनः अपना क्यों है? अनावश्यक विवाद की आवश्यकता ही नहीं हैं। मत दोहराया। चूँकि भारत धर्म प्रधान देश है, यहाँ इसी से सौहार्द 6. पं जवाहर लाल नेहरु ने अनुच्छेद 25 की लिखित और प्रेम के साथ विविधता में एकता बनी हुई है। धर्म हमें में व्याख्या कर स्वीकार किया था कि जैन धार्मिक ग्रुप, धर्म जोडता है, तोडता नहीं, यदि अल्पसंख्यकों की पहचान कर की दृष्टि से हिन्दुओं से भिन्न हैं। उन्हें संवैधानिक सुरक्षा प्रदान नहीं की गई तो एक संस्कृति 7. श्री हाकिम सिंह बनाम स्थानकवासी जैन श्रावक हो नेस्तनाबूद होने का खतरा है जो राष्ट्रीय एकता का मूल संघ में बम्बई हाईकोर्ट की एकलपीठ ने 29.9. 2000 को आधार ह । यह निर्णय दिया था कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय को धर्म कभी ऋणात्मक नहीं होता........ राजनैतिक अपनी शिक्षण संस्थायें चलाने का पूर्ण अधिकार है। भले उसका उल्टा लाभ उठा लें, परन्तु यह भी विडम्बना ही माना कि सर्वोच्च न्यायालय का 8. 8. 2005 का है कि अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए आज हमें राजनीति निर्णय उपरोक्त भावनाओं के विपरीत, चौकाने वाला है का ही सहारा लेना पड़ता है। हाँ वास्तविकता से मुँह मोड़ना परन्त असहमत होने पर पनर्निरीक्षण याचिका प्रस्तत करने किसी भी समाज के लिये अदूरदर्शिता होगी, थोड़े आर्थिक का भी प्रावधान है जो शीघ्र की जानी चाहिये। हालांकि लाभा क ालय नहा वरन् सवधानिक सुरक्षा क - लाभों के लिये नहीं वरन संवैधानिक सरक्षा के लिये और न्यायालय से हटकर, केन्द्र सरकार में यदि जरा भी न्यायप्रियता समय पर नहीं चेते तो भविष्य में अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न भी है तो उसे स्वयं ही जैनियों की अल्पसंख्या देखते हये और लग सकता है? यह विचारणीय है। अल्पसंख्यक आयोग के विवेकपूर्ण प्रस्ताव पर सकारात्मक अध्यक्ष राष्ट्रीय अनेकान्त अकादमी निर्णय लेते हुये तत्काल अल्पसंख्यकों की सूची में ईसाईयों 75, चित्रगुप्त नगर, कोटरा, भोपाल भगवान् सुपार्श्वनाथ जी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के काशी देश में बनारस नाम नगरी थी। उसमें सुप्रतिष्ठ महाराज राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम पृथ्वीषेणा था। ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन उन महारानी ने मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्रविमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् पद्मप्रभ के नौ हजार करोड़ सागर बीत जाने पर भगवान् सुपार्श्वनाथ का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में सम्मिलित थी। उनकी आयु बीस लाख पूर्व और शरीर की ऊँचाई दो सौ धनुष थी। जब उनकी आयु बीस पूर्वांग कम एक लाख पूर्व की रह गई तब किसी समय ऋतु का परिवर्तन देखकर वे विरक्त हो गये और सहेतुक वन में जाकर ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी के दिन सायंकाल के समय बेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन वे भगवान् सोमखेट नामक नगर में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले महेन्द्र राजा ने आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये। नौ वर्ष छद्मस्थ अवस्था में रहकर मुनि सुपार्श्वनाथ उसी सहेतुक वन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण षष्ठी के दिन सायंकाल के समय घातिया कर्म के नष्ट हो जाने से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् सुपार्श्वनाथ के समवशरण की रचना हुई, जिसमें तीन लाख मुनि, तीन लाख तीस हजार आर्यिकायें, तीन लाख श्रावक, पाँच लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस प्रकार अनेक देशों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए जब उनकी आयु एक माह शेष रह गई तब विहार बन्द कर वे सम्मेदशिखर पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया। तदनन्तर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन प्रात:काल अघातिया कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया। मुनि श्री समतासागर-कृत 'शलाकापुरुष' से साभार दिसम्बर 2005 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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