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काल की अंतिम 6 आवली की अवधि में कोई जीव परिणाम उत्तर-नहीं, क्योंकि पहले वह सम्यग्दृष्टि था इसलिये भूतपूर्ण हानिवश सम्यक्त्व रत्न को खोकर(ल. सा. पृष्ठ 83 मुख्तारी) न्याय की अपेक्षा उसके सम्यग्दष्टि संज्ञा बन जाती है। वास्तव सासादन (नाशित सम्यक्त्व व मिथ्यात्व गुण के अभिमुख) में सासादन सम्यग्दृष्टि का सही अर्थ है, 'आसादना सहित हो जाता है। (जयधवल 12, लब्धिसार गा. 99 से 109, जिसकी समीचीन दृष्टि होती है, वह सासादन सम्यग्दृष्टि धवल 4 /339-343 आदि)
कहलाता है।' चौबीस ठाणा में उपशम सम्यक्त्व की प्ररूपणा यहाँ भी इतना विशेष है कि पं. टोडरमल जी के करते हुए, उपशम सम्यक्त्व को चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान समक्ष श्रीधवला आदि ग्रंथों का प्रकाशन न होने के कारण, तक कहा जाता है, दूसरे गुणस्थान में नहीं कहा जाता है। मोक्षमार्ग प्रकाशक तथा उनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथों में बहुत दूसरे सासादन गुणस्थान में तिर्यंचायु आदि 25 अशुभ प्रकृतियों से ऐसे प्रसंग पढ़ने में आते हैं, जो सूक्ष्म विवेचन करने वाले का बंध होता है, जो उपशम सम्यग्दृष्टि को बिल्कुल संभव श्री धवला आदि ग्रंथों के अनुसार आगम सम्मत नहीं है। नहीं है। अतः उपरोक्त समाधान के अनुसार सासादन गुणस्थान कुछ पक्षपाती लोग, श्री धवला आदि ग्रंथों के अर्थ को में उपशम सम्यक्त्व का काल न मानकर उसका सही मोक्षमार्ग प्रकाशक के अनुसार तोड़मरोड़ कर अपनी स्थूल अभिप्राय समझना चाहिये । इस द्वितीय गुणस्थान को सासादन बुद्धि का परिचय देते हैं,जबकि उनको धवला आदि ग्रंथों के सम्यग्दृष्टि कहने का वास्तविक अभिप्राय क्या है, इस सम्बन्ध अनुसार मोक्षमार्ग प्रकाशक में आवश्यक सुधार कर अपनी में श्री धवला पुस्तक 1, पृष्ठ 166 का निम्न कथन ध्यान देने बुद्धि का परिमार्जन करना ही मोक्षमार्ग में श्रेयस्कर है। योग्य है, 'प्रश्न-सासादन गुणस्थान विपरीत अभिप्राय से
1-205 प्रोफेसर कालोनी दूषित है। इसलिये इसमें सम्यग्दृष्टिपना कैसे बनता है'?
आगरा - 28002
द्विदल सेवन बनाम मासाहार
पं. पुलक गोयल भौतिकवादी युग में जहाँ आज पश्चिमी सभ्यता का प्रचार-प्रसार बढ़ता चला आ रहा है, ऐसे समय में रसना इन्द्रिय की लोलुपता, मांसाहार का सेवन दही बड़े के रूप में करा रही है। आज देखें किसी भी अनुष्ठान, बड़े-बड़े आयोजनों, समारोहों में तक में यदि दही का रायता, दही बड़ा नहीं बना तो भोज्य पदार्थ अच्छे नहीं लगते एवं कुछ अधूरापन महसूस होता है इसलिये जब भी ऐसे कार्यक्रम होते हैं उनमें भोजन के मीनू में प्रथम स्थान दही और बेसन से बने रायता एवं बड़े का होता है। हो सकता है ज्ञान के अभाव में इसे भक्ष्य पदार्थ की सूची में स्थान प्राप्त हो लेकिन मैं इस लेख के माध्यम से यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि द्विदल बनाम मांसाहार ही है।
दलने पर जिनके प्रायः बराबर-बराबर दो टुकड़े होते हैं जैसे चना, मूंग, उड़द आदि के चून आदि के मेल से बनने वाली कढ़ी, रायता, दही बड़े आदि पदार्थों को द्विदल या द्विदलान्न कहते हैं। ऐसे द्विदलान्न के मुख में जाने पर जीभ-लार के संयोग से सम्मूर्छन त्रस जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। इसलिये द्विदलान्न को अभक्ष्य माना गया है।
द्विदल के प्रसंग में पं. हीरालाल जी शास्त्री की घटना प्रस्तुत कर रहा हूँ। 50 वर्ष पुरानी बात है एक बार वे ललितपुर (उ.प्र.) गये वे प्रतिदिन स्नान के लिये नदी जाया करते थे। एक मुसलमान को पींजरा में तीतर और हाथ में कटोरा लिए प्रतिदिन देखा करते थे। वह कटोरा में रखे छांछ और बेसन को अंगुली से घोलकर, उसमें थूककर और सूर्य की किरणों की ओर कुछ देर दिखाकर उसे कबूतर के आगे पिंजरे में रख देता था। जब उन्होंने उससे एक दिन पूछा तुम ऐसा क्यों करते हो, तब उसने कहा कि छांछ में घुले उस बेसन में थूककर सूर्य की किरणों के योग से कीड़े पड़ जाते हैं, जिन्हें यह तीतर चुग लेता है। मुझे यह घटना पढ़कर शास्त्र सागारधर्मामृत के ये वाक्य याद आ गये "आमगोरस संपृक्तं, द्विदलं प्रायशोऽनवम् " शास्त्र का यह वाक्य यथार्थ है और द्विदलान्न अभक्ष्य है। जिसका अर्थ हैगोरस में मिले हुए द्विदल का नहीं खाना। उसी प्रकार हमारी जिव्हा में द्विदल जाते ही संमूर्छन त्रस जीवों की उत्पत्ति हो
जाती है। इस लेख को पढ़कर बुद्धिजीवी द्विदल के खाने का आजीवन त्याग करें। 28 दिसम्बर 2005 जिनभाषित
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