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कदाचित् असावधानी वश ही इस साधु के एक हाथ में मामा भनेज मंदिर की महावीर प्रतिमा अपना अप्रतिम स्थान शास्त्र का उल्लेख किया है और इसका दूसरा हाथ उपदेश रखती हैं। अपने शिल्प में यह हमें कुण्डलपुर के बड़े बाब मुद्रा में अवस्थित बताया है।
का स्मरण कराती है। कहा नहीं जा सकता कि इनमें कौन सर्वतोभद्रिका की विवेच्य साध मर्ति क्या एक रहस्य किससे प्रभावित है। शताब्दियों से समय-समय पर विधिबनकर ही उपस्थित रहेगी? समाज की उदासीनता या कलाकार
विधान संगत लेप्य से सतत् आवेष्टित होते रहने के कारण की असावधानी का एक अपवाद स्वरूप उदाहरण बताकर यह मूर्ति अपनी आभायुक्त सौम्य मुख मुद्रा सुरक्षित नहीं इसके साथ न्याय नहीं किया जा सकता। मेरी धारणा है कि रख पाई है, जबकि बड़े बाबा के सम्मुख मानो काल भी तीर्थंकर सम पूज्य यह मूर्ति कुंदकुंदाचार्य (पहली सदी) स्थिर रह गया है। स्पष्टतः हम इस निरंतर परिवर्तमान अनुकृति अथवा आचार्य पद्मनन्दि की स्मति को समर्पित है जिन्होंने का काल निर्धारण आसानी से नहीं कर सकते। फिर भी हमें बारा नगर को अपने चरणारविंद से पवित्र किया था। स्वर्गीय ध्यान रखना होगा कि परवर्ती जैन प्रतिमा विज्ञान में मिट्टी. पंडित नाथराम प्रेमी ने ज्ञान प्रबोध नामक एक हिन्दी ग्रन्थ काष्ठ और लेप से बनी प्रतिमाओं को प्रतिष्ठेय नहीं ठहराया का उल्लेख किया है जिसमें कुंदकुंदाचार्य को बारापुर के गया है। अतः भट्ट अकलंक और वर्धमान सूरि जैसे विद्वान् एक धनी श्रेष्ठी का पत्र बताया गया है नंदिसंघ की पट्रावली लेखकों के मृण्मूर्ति पूजा संबंधी उल्लेखों के आधार पर हम से ज्ञात होता है कि बारा में भट्टारकों की एक गद्दी भी रही है अनुमान कर सकते हैं कि यह ध्रुववेद नवताल लेप्पमयी जो पद्मनंदि की परम्परा को लगभग एक शताब्दी तक अक्षण्य प्रतिमा छठी-सातवीं शताब्दी की संघटना रही होगी। यह बनाये रही है। अतः यह अनमान निराधार न होगा कि परिकर विहीन मूर्ति केवल श्रीवत्स. जटा और प्रभामंडल बारहवीं शताब्दी की बारा स्थित भद्रारक पीठ ने इस युक्त है, जो कि जैन प्रतिमाओं के आदिम लांछन हैं। इस सर्वतोभद्रिका की स्थापना की थी और उसमें कंदकंदाचार्य विशाल मूर्ति के सामने नीचे की ओर-सिंहासन के मध्य अथवा अपनी पीठ के प्रतिष्ठापक आचार्य पद्मनंदि को तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की 6 फुट ऊँची पद्मासन रक्तम्भ प्रस्तर स्थान दिया था। निश्चय ही सर्वतोभद्रिका की साधु मूर्ति प्रतिमा प्रतिष्ठित है जो कदाचित् पार्श्ववर्ती मृणमूर्ति को किसी असाधारण आचार्य परमेष्ठी की स्मृति को उजागर भक्त जनों के श्रद्धा-जल से सुरक्षित बनाये रखने के उद्देश्य करती है।
से सन् 1775 ईस्वी में प्रतिष्ठित कराई गई है। चन्द्रप्रभ तथा बीना-बारहा की तीर्थंकर मर्तियों में मामा भनेज के इस मंदिर की अन्य तीर्थंकर मूर्तियाँ जटा तथा केश किरीट नाम से विख्यात महावीर की 13 फुट ऊँची पद्मासन मृण्मूर्ति युक्त है। और शांतिनाथ मंदिर की 16 फट खड़गासन पाषाण प्रतिमा
जैन देवमंडल की विकास यात्रा के महत्त्वपूर्ण उल्लेनीय है। लांछन युक्त शांतिनाथ प्रतिमा कदाचित् सन् 1189 इस्वा के दानवार पाड़ाशाह द्वारा प्रतिष्ठित कराई गई है स्थित उस शिल्पांकन का उल्लेख करना चाहेंगे जो ईसा की क्योंकि इसी आकार-प्रकार शिल्प और तालमेल की शांतिनाथ आठवीं-नवी शताब्दी के अम्बिका कुबेर युग्म को प्रदर्शित प्रतिमायें उसके द्वारा अहार, थूबौन, बजरंगगढ परीलागिरि करता है। जैन देवमंडल के अधिकारी विद्वान् श्री उमाकान्त आदि तीर्थों पर प्रतिष्ठित कराई गई थी। ये सीधी और परमानंद शाह के मतानुसार सन् 550 ईस्वी के लगभग प्रथम सपाट मर्तियां देशी पत्थर पर स्थानीय कारीगरों द्वारा निर्मित बार यक्ष-यक्षी के रूप में अम्बिका-कबेर का अंकन होता हैं और इन पर लेखादि नहीं मिलते। इन मतिर्यों में एक रहा है। संभवत: ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में शासन देवताओं आश्चर्यजनक साम्य यह भी है कि जैनेत्तर समाज इनकी की अंतिम सूची निर्धारित होते समय अम्बिका-कुबेर का पूजा और मनौती करता है तथा अनेक चमत्कार पूर्ण कहानियां जोड़ा शिल्प शास्त्र से तिरोहित हो गया। अतः स्पष्ट है कि इनके साथ जड गई हैं। सच तो यह है कि ये शांतिनाथ उक्त प्रतिमा ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी के पूर्व निर्मित हुई प्रतिमायें ही संबंद्ध तीर्थ क्षेत्रों को अतिशय क्षेत्र की संज्ञा होगा। इसमें करण्ड मुकुट युक्त द्विभुज कुबेर के सुरा भाण्ड प्रदान करती हैं। बुन्देलखण्ड वासी पाड़ाशाह तेरहवीं शती का प्रतीक है। कुबेर के बायी ओर अर्ध पर्यंकासन में द्विभुज ईस्वी के एक धनाड्य व्यापारी थे।
अम्बिका उत्कीर्ण है, वे अपने बायें हाथ से एक पुत्र को मिट्टी से बनी हुई प्रतिष्ठेय मर्तियों के इतिहास में संभाले हुये हैं। मूर्ति के पादपीठ में संभवतः अष्टनिधियों 18 दिसम्बर 2005 जिनभाषित
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