Book Title: Jinabhashita 2005 12
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ बीना (बारहा) का विस्मृत कला-वैभव स्व. डॉ. श्री कस्तूर चन्द जी जैन सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दमोह (म. प्र.) मध्यप्रदेश के पुरातात्विक मानचित्र पर बीना बारहा उल्लेख हमें जंबुदीवपण्णत्ति में मिलता है। आचार्य पद्मनंदि का नाम अभी-अभी उभरा है। बुन्देलखण्ड की धर्म-प्राण (दसवीं शती ईस्वी) ने बाराह, बारहा अथवा बारा नगर के जनता इस देवभूमि की अतिशय क्षेत्र के रूप में स्वीकार रूप में इसका उल्लेख किया है। उस समय यह नगर परियत्त कर अपनी पूजा का अर्घ्य चढाती रही है। शताब्दियों से अथवा परियात्र देश के अंतर्गत था और धनधान्य से पूर्ण इस महावीर तथा शांतिनाथ की विशाल चमत्कारी प्रतिमाओं के नगर में रहकर ही आचार्य पद्मनंदि ने जंबुदीवपण्णत्ति की इर्द-गिर्द स्थानीय लोक-मानस अपने सनातन पौराणिक रचना की थी। स्वर्गीय पंडित नाथुराम प्रेमी का यह अनुमान विश्वासों का जाल बुनता रहा है। भगवान् महावीर के 2500 तर्क संगत नहीं है कि बारा नगर वर्तमान कोटा (राजस्थान) वें निर्वाण महोत्सव वर्ष में जैन तीर्थक्षेत्रों के इतिवृत्त संकलन के निकट स्थित करना है। आचार्य हेमचन्द्र के साक्ष्य से हमें की प्रकाशन योजना के अंतर्गत इस क्षेत्र का व्यवस्थित यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि पारियत्र देश विन्ध्याचल के उत्तर विवरण श्री बलभद्र जैन द्वारा भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ में अवस्थित था। उत्तरोविन्ध्यात्पारियात्रः। अत: पारियात्र स्थित ग्रन्थ में पहली बार प्रस्तुत किया गया है। सम्प्रति श्रीमज्जिनेन्द्र बारा नगर की संगति विन्ध्यभूमि बुन्देलखण्ड के बीनापंचकल्याणक गजरथ महोत्सव के परिप्रेक्ष्य में विद्वानों का बारहा से बैठती है, राजस्थान से नहीं। राजस्थान के बारा ध्यान इस क्षेत्र में फैली हुई पुरासम्पदा की ओर आकृष्ट हआ नगर की ऐतिहासिकता भी संदिग्ध है, जबकि पूरा साक्ष्य है। सुना है, मध्यप्रदेश शासन की ओर से भी व्यापक स्तर बीना-बारहा के अस्तित्व को नवीं-दसवीं शताब्दी ईस्वी पर सर्वेक्षण कार्य प्रारम्भ हो चुका है। आशा की जानी चाहिये तक पीछे ले जाता है। कि राजा वेणु की इस ध्वस्त अभिशप्त कला-नगरी को बीना-बारहा का मूर्ति शिल्प तीन भागों में बांटा जा समुचित महत्त्व और संरक्षण प्राप्त होगा। सकता है-तीर्थंकर प्रतिमायें, देव प्रतिमायें तथा अन्य स्फुट सागर जिले की रहली तहसील के अंतर्गत देवरी से 8 मर्तियाँ। तीर्थंकर प्रतिमाओं में हम सर्वप्रथम गंधकटी स्थित किलोमीटर दूर नौरादेही अभ्यारण्य में सुखचैन नदी के किनारे उस सर्वतोभद्र प्रतिमाकृति का उल्लेख करना चाहेगें जो तीन बीना-बारहा अतिशय क्षेत्र अवस्थित है। बीना और बारहा दिशाओं में तीर्थंकर अंकन के साथ चौथी दिशा में एक साधु दो निकटवर्ती गांव हैं, जो अब एक ही नाम से प्रायः जाने मूर्ति का अंकन करती है। सर्वतोभद्र शिल्प-परम्परा का यह जाते हैं। बीना-बारहा अंचल में बसे हुये मड़खेरा, ईसुरपुर, एक असाधारण स्तम्भाकार है। स्तम्भाकार चतुर्मुखी रानीताल, खैरी आदि गांव मिलकर इस सम्पूर्ण क्षेत्र की एक सर्वतोभद्रिका में तीन दिशाओं से तीर्थंकर मूर्तियों के साथ पुरातात्त्विक इकाई बनाते हैं। इस क्षेत्र में विकीर्ण मूर्ति और चौथी दिशा से एक साधु-मूर्ति का प्रवेश, निश्चय ही जैनस्थापत्य के नमूनों से आभास होता है कि मध्ययुग में यह शिल्प के इतिहास की एक असाधारण घटना है। सामान्यतः गव साधना का कोई बड़ा अच्छा केन्द्र रहा समवशरण सभा के मध्य स्थित गंधकूटी में सर्वतोमुख तीर्थंकर होगा। वैष्णव और जैन देव मण्डल की समन्वय-साधना का मूर्तियां अंतरिक्ष विराजमान होती हैं। धर्मचक्र के प्रवर्तन का यह केन्द्र हमारी धार्मिक सहिष्णुता का अनुपम उदाहरण है। अधिकार और समवशरण की विभूति तीर्थंकर को ही प्राप्त बीना अथवा वीणा नगर की स्थापना राजा वेणु ने की है मुनि को नहीं इसलिये तीर्थंकर प्रतिमा के मस्तक के ऊपर थी-इस आशय की अनुश्रुतियां, दंत कथायें और प्रवाद इस त्रिछत्र होता है। किन्तु प्रस्तुत अंकन में तीर्थंकर मूर्तियों के क्षेत्र में प्रचलित हैं। राजा वेणु की पत्नि कमलावती के साथ साधु मूर्ति भी त्रिछत्रधारी है और उसके पादपीठ में पराक्रम की अनेक कथायें भी कही सुनी जाती हैं। इस गौड़ पीछी और कमण्डलु उत्कीर्ण हैं । साधु ध्यान लीन हैं। उनके कालीन लोकप्रिय शासक के राजमहल के ध्वंसावशेष भी ऊपर उठे हुये दाहिने हाथ में माला है और बायां हाथ नीचे यहाँ प्राप्त होते हैं। किन्तु इस वैभवपूर्ण नगर का प्राचीनतम की ओर अंगुलि से जापरत उत्कीर्ण है। श्री बलभद्र जैन ने दिसम्बर 2005 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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